कविता

लफ्ज़ आईना है

महज महसूस करने की
बस! हमें जरूरत है
लफ्ज़ हों या विचार
हमारे आइने हैं।
हमें लगे या न लगे
हम मानें या न मानें
कोई फ़र्क नहीं पड़ता,
हम क्या हैं,कैसे हैं
हमारे लफ्जों के आइने में ही
लोग झांककर पढ़ लेते हैं,
अपनी धारणा तय कर लेते हैं
हमें खूब अच्छे से
पहचान जाते हैं।
हम भ्रम का शिकार होते
लफ्ज़ सिर्फ़ लफ्ज़ भर हैं
बस! यहीं हम मात खा जाते हैं।
आइना साथ लिए चलते हैं मगर
उसमें खुद ही नहीं झांक पाते,
बस!औरों को झांकने का
आमंत्रण देते रहते, खुश होते
और लोग भी हैं कि बस
मिलते हैं,झांकते हैं और
हमें अकेला छोड़
अपनी राह पर आगे बढ़ जाते हैं।

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921