हास्य व्यंग्य

मैं उर्फ़- ईमानदार

भारतवर्ष ईमानदारों का देश है। संसार में सबसे अधिक ईमानदारों का उत्पादन यही होता रहा है। इतिहास में झाँका तो राजा बली, हरिश्चंद्र, श्रीराम, गौतम, महावीर और अब ‘मैं’ – बस इतने ही ईमानदार धराधाम पर अब तक अवतरित हुए हैं। इस पृथ्वी का अंतिम ईमानदार जंतु ‘मैं’ हूँ। उसके बाद ना भूतो ना भविष्ययति! मेरी मृत्यु के बाद ईमानदारों की पीढ़ी समूल नष्ट हो जायेगी। डायनासोर की तरह ‘मै’ भी न मिलूँगा। और किसमें भला ये दम है कि ‘मेरे’ अलावा ईमानदार बने? इसलिए मेरी सूरत आँखों में बसा लीजिए। मेरी मूर्तियाँ अलग-अलग प्रतिरूपों में बनाकर राजधानियों से गाँव के चौराहों तक स्थापित करवा दीजिए।
‘मैं’ ईमानदारी की चलती-फिरती, जीती-जागती मिसाल हूँ। ‘मैं’ जहाँ से गुज़रता हूँ, वहाँ ईमानदारी की पदलिपि अंकित हो जाती है। मुझे छूकर पवन शुद्घ हो जाती है। जल पवित्र हो जाता है।अग्नि की पापियों को भस्म करने की दाहक क्षमता बढ़ जाती है। ये धरती स्थापित है क्योंकि ‘मैं’ जिंदा हूँ। आसमान फटा नहीं क्योंकि ‘मैंने’ प्राण नहीं त्यागें हैं।
‘मैं’ कुछ नहीं करता। दिखावा करता हूँ, कुछ न कुछ करने का। मुझे क्या आवश्यकता है कुछ करने की। स्वतंत्र देश का नागरिक हूँ। इतने सारे लोग हैं मेरी सेवा करने के लिए। मेरे बाप-दादाओं ने साहब इसी दिन के लिए गोलियाँ खायी थी क्या कि ‘मैं ‘ कुछ करूँ? ‘मैं’ सिर्फ देखता हूँ कि प्रधानमंत्री से लेकर चपरासी तक क्या नहीं कर रहा है। मैं किसी की नहीं सुनता। बहरा नहीं हूँ । अजी ‘मैं’ अपने बाप की नही सुनता तो किसी की क्योँ सुनूँगा।
यह मेरा चरित्र वाक्य है। हाँ, सिर्फ सुनाता हूँ। मैं लोकतांत्रिक देश का नागरिक हूँ। बोलना मेरा मौलिक अधिकार है। संविधान में लिखा है, लिखनेवाले ने। पढ़ लीजिएगा। ‘मैं’ उसका भरपूर उपयोग करता हूँ। राजा हो या मंत्री, चोर हो या संत्री सबको सुनाता हूँ। पर अफसोस कि मेरे ही घर में ‘मेरी’ कोई नहीं सुनता। साहब! ‘मैं’ मोटी और चिकनी चमड़ी का आदमी हूँ। मुझ पर कोई फर्क नहीं पड़ता। जो करना होता है, वही करता हूँ। अजी ‘मैं’ ईमानदार हूँ ना इसलिए कोई गलती हो ही नहीं सकती।
‘मैं’ पूरी ईमानदारी से टैक्स की चोरी करने का प्रयास करता हूँ। आंदोलन करते समय ‘मैं’ अपनी निजी संपत्ति पर आँच नहीं आने देता। पूरी ईमानदारी से सबसे पहले सार्वजनिक और सरकारी माल की ऐसी-तैसी करता हूँ। मेरी ईमानदारी का उदाहरण तो मेरे शिक्षक देते थे कि “वाह! ईमानदार हो तो मेरे जैसा। पहले साथियों को नकल करवाता है फिर आखिरी में समय बचा तो खुद करता है।” वह ‘मेरी’ ही ईमानदारी का पुण्य प्रताप था कि एक महापुरुष का कथन ‘सुक्त वाक्य’ बन गया – “मेरे द्वारा भेजा गया एक रुपया अंतिम व्यक्ति के पास पहुँचते-पहुँचते पंद्रह पैसे रह जाता है।” भला ऐसी ईमानदारी और कहाँ मिलेगी आपको?
अनेक बार विचार आता है कि ‘मैं’ ईमानदारी छोड़ दूँ। फिर तुरंत दूसरा विचार भी जाता है कि नहीं यदि ‘मैंने’ ईमानदारी छोड़ दी तो भ्रष्टाचारी देश और समाज को बेच खायेंगे। इस युग को और देश को ‘मेरी’ बहुत ज़रूरत है। इसलिए ‘मेरा’ ईमानदार बने रहना बहुत जरूरी है। कुछ समझे भाई !?

शरद सुनेरी