व्यंग्य और बाजार में जुगलबंदी
उस दिन खाने की टेबल पर बैठा ही था कि मोबाइल की रिंगटोन बजी। कॉल अननोन नंबर से था। अपन की प्रवृत्ति जिज्ञासु हैं, इसलिए हाथ में लिया कौर मुँह में ढकेला और उसे गटककर दूसरे हाथ से मोबाइल कान से सटाकर ‘हलो’ कहा। उधर से परिचयात्मक स्वर उभरा कि वह किसी प्रकाशन संस्था से बोल रहा है। अब किसी प्रकाशक का फोन आए और लेखकनुमा जीव खुश न हो, यह संभव नहीं! मैं भी झटपट खुश हो लिया था। खैर फेसबुक पर लिखते-लिखते स्वयं के लेखक होने की फीलिंग तो आ ही गई है! वह फोन काल मुझे गर्वानुभूति दे गई थी। लेकिन अगले ही पल जब उसने कहा कि, “आपने हमारे वेबसाइट पर अपना फोन नंबर दिया है, इसलिए फोन किया” तो मेरा उत्साह थोड़ा ठंडा पड़ गया था, क्योंकि मैं तो यह सोचकर खुश था कि जरूर इस प्रकाशन संस्था ने मेरे लिखे से प्रभावित होकर ही मुझे फ़ोन किया होगा। खैर, कुछ दिन पहले अपने एक ब्लॉगनुमा लेख के कमेंटबाक्स में किसी के द्वारा दिए गए वेबसाइट पर मैंने अपना नाम और मोबाइल नंबर छोड़ा था।
उस फोन वार्ता में जब उसने यह कहा कि ‘किताब प्रकाशित कराने के लिए टाइपिंग और कवरपेज बनाने का खर्चा दस हजार रुपया पहले देना होगा और यह काम हो जाने के बाद इसे आपको देखने के लिए भेजा जाएगा, फिर आगे की बात होगी’ तो मैं नासमझ मुर्गे जैसी चुप्पी लगा गया था। फिर जैसे मेरी चुप्पी से विचलित होकर उसने पूँछा था, “वैसे आप क्या लिखते हैं?” इस जायज़ बात पर मैंने भी बोल दिया था कि ‘कोई खास नहीं, कभी-कभार कुछ व्यंग-वंग टाइप का लेख लिख देता हूँ।’ मेरी इस बात पर उसने एकदम से कहा था, “अरे हाँ! आजकल तो व्यंग्य का ही मार्केट है, ठीक है..अब आप आगे का प्लान बताएं!” चूंकि मेरे पास लेखन जैसे क्षेत्र में मार्केटिंग का अनुभव नहीं है, इसलिए बात को बढ़ाने की बजाय आगे प्लानिंग करने की बात कहकर उस फोन कॉल से छुट्टी पा ली थी।
हाँ तब से लिखने से ज्यादा ‘मार्केटिंग’ का गुर सीखने में वक्त बिता रहा हूं। लेकिन कविता, कहानी और उपन्यास जैसी साहित्यिक विधाओं को छोड़ आजकल व्यंग्य ही क्यों बिकाऊ है? इसपर विचारा तो इसके पीछे बुद्धिमानों की बढ़ती संख्या जिम्मेदार प्रतीत हुई। विसंगतियों पर तीक्ष्ण दृष्टि रखनेवाला यह जीव आजकल बैठे-ठाले भड़ासित मन से अपने ‘अधरोष्ठों’ पर मुस्कान लाए बिना व्यंग्य उगलता है। इसके उगले व्यंग्य में इसकी त्योरियां चढ़ी हुई प्रतीत होती है, जैसे यह बाहर की बजाय अपने अंदर की विस़गति से पीड़ित हो! खैर, जैसे ही मेरे दिमाग में यह बात आई मैंने अपने अंदर की विसंगति पर गौर करना शुरू किया, कि कितनी जल्दी इसे प्रकटाऊँ और बिकूँ!
लेकिन मेरी समस्या यह है कि बुद्धिमानों के बीच मेरी पैठ नहीं, जिससे मेरी एक्टीविटी इनके बीच चर्चा का विषय बन सके और मुझे बिकाऊ होने में मदद करे! मैं देखता हूँ बिकने वाले साहित्यकार-कम-व्यंग्यकार इसीलिए लिखने से ज्यादा साहित्यिक गोष्ठियों में जाकर इसकी चर्चा करके बुद्धिमान लेखकों के बीच कायदे से अपनी मार्केटिंग कर लेते हैं। रही बात पाठकों की, तो पाठकों से ज़्यादा इन लेखकों की संख्या ही अब इतनी अधिक हो चुकी है कि पाठकों की तलाश करना लेखक की निरी बेवकूफी होगी! सोशल मीडिया से सक्रिय लेखकों से इनकी संख्या का सहज अनुमान लगाया जा सकता है। तो लेखकों की संख्या और इनमें व्यंग्य की अच्छी समझ को देखते हुए मैंने तय कर लिया है कि पाठकों की बजाय लेखकों के बीच ही अपनी मार्केटिंग की जाए। इससे मेरी किताब बिकने के अधिक चांसेज उपलब्ध होंगे। वैसे भी पाठक बेचारा आजकल के व्यंग्य से अपनी विसंगति का तालमेल नहीं बैठा पाता, इसे पढ़कर वह अपना सिर खुजलाने लगता है।
अपनी व्यंग्य वाली किताब को बिकाऊ बनाने के लिए एक अन्य तथ्यपूर्ण बात पर भी गौर कर रहा हूं, यह कि आजकल उन्हीं बुद्धिजीवी लेखकों के व्यंग्य अधिक धारदार माने जाते हैं, जो खेमेबाजी करते हैं। इसीलिए इनकी फैन फॉलोइंग की संख्या भी बड़ी होती है, जो इनके बिकने में मददगार साबित होती है। सोशल मीडिया पर लेखकों को मिले लाईक कमेंट की संख्या से भी इस बात का अनुमान लगाया जा सकता है। तो, बिकाऊ होने के लिए पार्टीबंदी की प्लानिंग के साथ विरोधी लेखकों से मुंहा-तुंहा की नीति अपनाकर मुझे व्यंग्य लेखन करना होगा। शायद इन सब हथकंडों से किताब का स्वयंमेव प्रचार भी हो जाए।
खैर, हमें भावी व्यंग्य की अपनी किताब को बाजार में बेचना है, इसलिए पहले बाजारवाद को भी अच्छे से समझना होगा। यहां, जो दिखता है वही बिकता भी है, का सिद्धांत चलता है। पहले का तो नहीं कह सकते, लेकिन आज लेखक, लेखक होने के साथ-साथ बुद्धिजीवी भी होता है, और इनकी आदत होती है कि ये कुछ करें या न करें, लेकिन विसंगति तलाश करने में अपनी बुद्धि जरूर खपाते हैं। इनकी बढ़ती संख्या से मैं मानता हूँ कि आजकल व्यंग्यवाद का ज़माना है और विज्ञापनों में व्यंग्य के तत्वों के इस्तेमाल को देखने से सिद्ध होता है कि व्यंग्यवाद और बाजारवाद में खूब जुगलबंदी चल रही है। यदि यह जुगलबंदी न होती, तो बाजारवाद का कबाड़ा करने के लिए इसपर लिखा व्यंग्य भी न बिकता! सच तो यह है कि ये आपस में किसी का कबाड़ा नहीं करते, बल्कि इस जुगलबंदी के कारण ही ये दोनों ‘वाद’ दिन दूनी रात चौगुनी उन्नति कर रहे हैं!! यहां मैं इस बात से सहमत नहीं हूं, कि बाजारवाद ने साहित्य का कबाड़ा किया हुआ है, पहली बात तो यह है कि साहित्य कोई कमोडिटी नहीं है कि वह बिक सके, बिकता वही है, जो कमोडिटी हो। व्यंग्य साहित्य न होकर ‘चीज’ है, जिसे आसानी से बेंचा जा सकता है।
हाँ इतना अवश्य है कि बाजारवाद पैसे और प्रचार को आदमी से ऊपर रखकर चलता है और आदमी जब इन दोनो की गिरफ्त में होता है तो अकुलाता है कि वह दिखाई पड़े! कैसे दिखाई पड़े? इसके लिए वह पके फोड़े के मवाद जैसा फूटकर प्रकट हो जाता है। आखिर लेखक को भी प्रचार और पैसा चाहिए होता है, जिसके लिए उसे भी बिकना होता है, यह तभी संभव है जब वह आदमी को नीचे रखकर लिखे। सोचा रहा हूं, इन बातों पर पूरी प्लानिंग हो जाने के बाद ही उस प्रकाशन संस्था वाले को फोन किया जाए।