दीपावली के दिन की घटना याद आ रही है |उस दिन मै बाहर बैठा हुआ ऊपर आकाश मे उडते पंछी को देख रहा था। वो दाना चुनकर लाता जाकर पंछी अपनी चोंच मे दाना लेकर चूजो को खिला रहा था |पंछी के अभिवादन में चूजे पंखो को फडफड़ा कर तालियों के समान कर रहे थे | ऐसा लग रहा था कि मानों उनके यहाँ रोज दीवाली हो | ठीक उसी पेड के नीचे बने घर मे माँ अपने भूखे बच्चों के लिए दीपावली के दिन अपने पति का इंतजार इस उम्मीद से कर रही थी की वो अपने बच्चों के लिए कुछ ना कुछ तो जरुर लाएंगे |किन्तु शराब के नशे मे धनतेरस पर जुए मे हार कर लडखडाते कदमो से घर आने पर मोहल्ले वाले करने लगे उसका गालियों से अभिवादन |और मै बैठा हुआ सोचने लगा कि अच्छा है पंछी शराब नहीं पीते |नहीं तो उनके भी हालात उस इंसान की तरह हो जाते जिनके बच्चे दीपावली पर्व पर पेड के नीचे बने घर मे भूखे सो गए थे |वो शराबी इंसान अब इस दुनिया मे नहीं रहा किन्तु उनकी माँ मजदूरी कर के अपने बच्चों का पालन पोषण कर रही। और सोच रही है कि पति शराब नहीं पीते तो बच्चे अपने पिता के संग पटाखे और रोशनी के आज दीप जलाते |
— संजय वर्मा “दृष्टि “