उपन्यास अंश

लघु उपन्यास – षड्यंत्र (कड़ी 22)

वारणावत जाने का आदेश पाकर युवराज युधिष्ठिर अपने निवास पर आये और अपनी माता कुंती तथा सभी भाइयों को इस आदेश की सूचना दी और चलने की तैयारी करने को कहा। अन्य पांडवों तथा कुंती ने भी इस आदेश पर अपना रोष प्रकट किया और स्पष्ट शब्दों में कहा कि यह हमें हस्तिनापुर से दूर रखने का षड्यन्त्र है और हमें यह आदेश स्वीकार नहीं करना चाहिए। लेकिन युधिष्ठिर ने उनको समझाया कि मैं महाराज के आदेश का उल्लंघन नहीं कर सकता, चाहे उन्होंने किसी भी उद्देश्य से यह आदेश दिया हो। इसलिए हम इसका पालन करेंगे, लेकिन पूरी तरह सावधान रहेंगे, क्योंकि यह आदेश किसी षड्यन्त्र का भाग हो सकता है। सभी पांडव भाई इसके लिए तैयार हो गये। वैसे भी वे सभी कभी भी बड़े भ्राता के आदेश का उल्लंघन नहीं करते थे, वरन् उनकी इच्छानुसार ही चलते थे। इस बार भी वे सहर्ष युधिष्ठिर के साथ जाने को तैयार हो गये। उन्हें इस बात का सन्तोष था कि कम से कम सभी भाई एक साथ रहेंगे और एक-दूसरे की सुरक्षा करेंगे।

धर्मराज युधिष्ठिर ने महामंत्री विदुर को भी यह आदेश मिलने के बारे में बताया तथा अन्य को भी इसकी जानकारी दी। विदुर ने इस पर कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की। वे षड्यंत्र से पहले ही अवगत हो गये थे। यह आदेश मिलने पर उसकी पुष्टि भी हो गयी। लेकिन उनके पास कोई ठोस प्रमाण नहीं था कि यह पांडवों को समाप्त करने का षड्यंत्र है। इसलिए वे इसका भंडाफोड़ नहीं कर सकते थे। इसके स्थान पर उन्होंने पांडवों का बचाव करने का निश्चय कर लिया।

शीघ्र ही यह समाचार पूरे हस्तिनापुर में फैल गया कि महाराज धृतराष्ट्र के आदेश से धर्मराज युधिष्ठिर अपनी माता कुंती और सभी भाइयों सहित वारणावत जा रहे हैं और कुछ समय तक वहीं रहेंगे। यह समाचार जानकर पुरवासियों में रोष फैल गया। वे उनके लिए शोक करने लगे।

रथों पर सवार होकर जब पांडव और माता कुंती निकले, तो पुरवासियों ने उनको रोका और न जाने के लिए कहा। किसी तरह युधिष्ठिर ने उनको समझाया कि मैं हमेशा के लिए नहीं जा रहा हूँ, बल्कि थोड़े ही समय के लिए जा रहा हूँ और शीघ्र ही लौट आऊँगा। तब पुरवासियों ने उनके लिए मार्ग खोला। नगर की सीमा तक महामंत्री विदुर उनके साथ गये।

विदुर को वारणावत के षड्यंत्र की पूरी सूचना मिल चुकी थी। लेकिन वे इस बारे में सबके सामने चर्चा नहीं करना चाहते थे। इसलिए नगर की सीमा तक पहुँचने वाले मार्ग में उन्होंने कूट भाषा में युधिष्ठिर से वार्ता प्रारम्भ की। जो कूट भाषा उन्होंने बड़े परिश्रम के साथ युवराज युधिष्ठिर को सिखाई थी, वह यहाँ बहुत उपयोगी सिद्ध हुई। निरर्थक सी प्रतीत होने वाली इस भाषा को युधिष्ठिर भली प्रकार समझ रहे थे, किन्तु कोई अन्य उसका वास्तविक अर्थ नहीं समझ सकता था। इसलिए उस बात के प्रकट होने की संभावना नहीं थी।

विदुर ने युधिष्ठिर को बताया कि राजा को शत्रु की नीति को समझकर उससे बचने का उपाय कर लेना चाहिए। ऐसा भी शस्त्र होता है, जो किसी धातु का बना नहीं होता, किन्तु शरीर को नष्ट कर देता है। परन्तु जो उस शस्त्र को जानता है, उसे उससे कोई हानि नहीं हो सकती। युधिष्ठिर को यह समझने में देर नहीं लगी कि महामंत्री विदुर उनको आग से सावधान कर रहे हैं।
विदुर ने आगे कहा- ”वन की आग वहाँ के घास-फूस-पेड़-पौधों और जीव-जन्तुओं को भी जलाकर नष्ट कर देती है, लेकिन बिलों में रहने वाले चूहे आदि जीव-जन्तु उससे अपनी रक्षा कर लेते हैं। इसी प्रकार राजा को अपने शत्रुओं से बचने का उपाय कर लेना चाहिए।“

”राजा को अपने निकट रहने वालों से विशेष सावधानी रखनी चाहिए और उनके कार्यों पर दृष्टि रखनी चाहिए।“ विदुर के इस वाक्य से युधिष्ठिर को संकेत मिल गया कि उन्हें उसी महल का निर्माण कराने और देखभाग करने के लिए रहने वाले पुरोचन से विशेष सावधान रहने की आवश्यकता है।

फिर विदुर ने कहा- ”जिसकी आँखें नहीं हैं, वह मार्ग नहीं जान पाता, अंधे व्यक्ति को दिशाओं का ज्ञान नहीं होता।“ इससे युधिष्ठिर समझ गये कि उनको बाहर निकलने का मार्ग समय से खोज लेना चाहिए और उनको भली प्रकार पहचान लेना चाहिए। विदुर ने एक बार फिर सावधान किया कि शत्रु के दिये हुए बिना लोहे के अस्त्र का वार जो मनुष्य समझ लेता है, वह साही की तरह बिलों में घुसकर आग से बच जाता है। महामंत्री विदुर ने उनको यह भी समझा दिया कि यदि पाँचों भाई एक साथ रहेंगे, तो शत्रु से बचे रहेंगे। इस पर युधिष्ठिर ने कूट भाषा में ही उनको आश्वस्त किया कि मैंने आपकी बात अच्छी तरह समझ ली है और आप निश्चिन्त रह सकते हैं।

इतनी बातें करने के बाद विदुर उनसे विदा लेकर लौट आये और पांडव अपनी माता सहित वारणावत को प्रस्थान कर गये। वह दिन फाल्गुन शुक्ल अष्टमी था और रोहिणी नक्षत्र में उन्होंने प्रस्थान किया था।

विदुर के लौट जाने के बाद महारानी कुंती ने युधिष्ठिर से पूछा- ”आर्य विदुर तुमसे क्या बातें कर रहे थे? कुछ टूटे-फूटे शब्दों और बिखरे-बिखरे से वाक्यों के अलावा मेरी समझ में कुछ नहीं आया।“ युधिष्ठिर ने उनको बताया कि हम एक गुप्त भाषा में वार्ता कर रहे थे। चाचा विदुर हमें आग से सावधान रहने और सभी को एक साथ ही रहने का परामर्श दे गये हैं।“ इससे कुंती का समाधान हो गया। युधिष्ठिर ने उनको इससे अधिक कुछ बताने की आवश्यकता नहीं समझी।

— डॉ. विजय कुमार सिंघल

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: jayvijaymail@gmail.com, प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- vijayks@rediffmail.com, vijaysinghal27@gmail.com