कौन बिरिछ तर भीजत ह्वै हैं सत्य-अहिंसा दोउ भाई
दो अक्टूबर के दिन सुबह से ही दिमाग पर गांधी जी सवार थे! सुबह उठने पर यही सोचा था कि आज गांधी जयंती को मनाना है। इस चक्कर में टहलने वाला कार्यक्रम भी स्थगित कर दिया था। गांधी जी की दो बातें दुनियां वाले खूब याद करते हैं, पहला सत्य और दूसरा अहिंसा। खैर उन्होंने, मतलब गांधी जी ने, सत्य के साथ खूब प्रयोग किए। अपने इन प्रयोगों के माध्यम से इसे जाना और बताया भी कि फला ही सत्य है। शायद ऐसा करके वे यही कहना चाह रहे हों कि देखो मैंने सत्य को किस तरह प्रयोग में लाया है, वैसे ही भारतवासी भी इसका प्रयोग करें। उन्होंने इसके प्रयोग के ढेर सारे तरीके भी सिखाए। वैसे भी भारतवासी स्वयं नहीं सीख पाते इन्हें सिखाने वाला चाहिए। इसीलिए यहां नेतागिरी का स्कोप कुछ ज़्यादा ही है। लेकिन जैसा कि लोगों का मानना है गांधी जी प्रीच और प्रैक्टिस में साम्य रखते थे। खैर।
मैं मानता हूं गांधी जी के जमाने में सत्य आसानी से राह चलते मिल जाता होगा। हो सकता है तब इसके यानि सत्य के बहुविध रूप भी नहीं रहे होंगे और दिखाई पड़ जाने पर इसे पहचाना भी आसान रहा होगा। गांधी जी इसे देखते ही हथिया लेते होंगे और तत्काल इसका प्रयोग कर डालते रहे होंगे। उन दिनों यह सत्य भी इस बात से गदगद हुआ भया रहता होगा कि, देखो लो भाई जी लोग! गांधी जी ने मेरा प्रयोग किया है। लेकिन आज कोई गांधी बनना चाहे भी तो नहीं बन सकता, क्यों? क्योंकि सत्य कहीं नज़र ही नहीं आएगा! और जब सत्य नहीं तो अहिंसा कहां से दिखाई देगा! लेकिन मन में प्रश्न उठना लाजिमी है कि यह सत्य क्यों नहीं दिखाई पड़ रहा? और कहीं गया भी है तो कहां गया? या मानुषों के नोचा-खसोटी से बचने के लिए यह डरा-सहमा जंगल में तो नहीं छिपा बैठा है और वहां दुर्दशा का शिकार हो रहा है? पता नहीं किस सुरसा के मुंह ने इसे निगल लिया है? काश कि यह सामने आए तो देश-गाँव, समाज का उद्धार करने में जुटे पड़े तमाम सत्याग्रहियों और ‘आन्दोलनजीवियों’ को मदद मिले! तथा सरकारें भी उनकी बात मानें। इसके बिना आजकल के धरना, प्रदर्शन निस्तेज हुए जा रहे हैं। सही में, यदि सत्य की खोज-खबर मिल जाए तो इस गांधी-भक्त देश में गांधी जी की कमी नहीं खलेगी और निश्चित ही इनके सद्प्रयासों से देश में रामराज्य स्थापित हो ।
चूंकि गांधी जी के सत्य का जुड़वा भाई अहिंसा भी है, तो इन दोनों की दुर्दशा की सोचकर द्रवित मेरा करुणाकलित हृदय जैसे रुदनायाम ग्रहणकर विलापित भाव से आशंकित होकर क्रंदनायित हो कह उठा, “कौन बिरिछ तर भींजत ह्वै हैं सत्य-अहिंसा दोउ भाई” और मेरी आँखें पनियल हो आई!! आखिर यह बेचारा सत्य दरबदर होकर कहां भटक रहा होगा? सत्य की इस दर्दनाक कहानी पर मैं कुछ-कुछ विचलित सा हुआ जा रहा था। लेकिन कुछ कवि हृदयों की इन बातों को सोचकर कि सत्य भीड़ में खो गया है, मैंने मन को ढाढ़स बंधाया कि हो सकता है यह अभागा, वनवासी न हुआ हो! और इसी ढढ़सियाए मन से मैं सांन्त्वनायित भी हुआ कि, कवियों की यह बात सत्य तो हो ही सकती हैं। आखिर देश की जनसंख्या भी तो गांधी के जमाने की तीस करोड़ से बढ़कर आज एक सौ तीस करोड़ हो चुकी है, ऐसे में लोगों की इस अपार भीड़ में यह भी कहीं घुसा पड़ा होगा? लेकिन इस अपरम्पार भीड़ में पड़कर सत्य की क्या गति बन रही होगी, सोचते हुए मैं फिर से दुबला होने लगा!! दरअसल भीड़ में फंसे होने की बचपन की एक तस्वीर मेरे जेहन में उभर आई! वह क्या कि तब मैं बच्चा हुआ करता था और उस ज़माने में पीलू मोदी नाम के एक नेता हुआ करते थे। एक बार मेरे कस्बे में हेलीकॉप्टर से उनका आना हुआ। मैं भी अपने चाचाओं के साथ हेलीकॉप्टर देखने उनकी जनसभा में चला गया था। हेलीकॉप्टर के उड़ जाने के बाद लौटते समय उस मैदान के गेट पर उमड़ी भीड़ के बीच मैं बेतरह फंस गया था और भीड़ का दबाव मेरे ऊपर इतना बढ़ा कि विकल होकर एकदम से रुआंसा हो आया था।
तो, आज एक सौ तीस करोड़ की भीड़ के बीच यह सत्य बेचारा भी कहीं उसी तरह बेतरह दबाया, लतियाया न जा रहा हो? सोचिए ज़रा, इसमें फंसे पड़े सत्य की क्या दशा हो रही होगी? मैं तो मात्र रुआंसा हो आया था और यह तो आज की भीड़ में फंसा भोकार छोड़कर (बुक्का फाड़कर) रो रहा होगा! लेकिन मजाल है कि आगे निकल भागने की इस रेलमपेल में कोई इसका रोना सुन ले? बल्कि इसमें उसके रोने की आवाज भी नहीं सुनाई देगी! इसके अलावा यह भी हो सकता है कि भीड़ ने ही इसे कहीं गायब कर दिया हो?
इन सारे पहलुओं पर गौर कर मैं बुझे मन से दो अक्टूबर जैसे-तैसे सेलीब्रेट करने की सोच रहा था। लेकिन मेरा कुछ-कुछ गणितज्ञ और वैज्ञानिक मन सत्य के गायब होने की बात को स्वीकार नहीं कर पा रहा था। क्योंकि कम्प्यूटर की मेमोरी या उसके क्षतिग्रस्त डिस्क से गायब हो चुकी चीज को भी आज सामने लाया जा सकता है। उसी तरह सत्य का चाहे कितना ही कीमा किया जाए, उसका अस्तित्व फिर भी बना ही रहता है। जैसे कि किसी संख्या को अनंत बार विभाजित करने के बाद भी उसका अस्तित्व नहीं मिटाया जा सकता। वैज्ञानिक भी इस तथ्य को बखूबी जानते हैं। वे तो यह भी कहते हैं कि अगर विभाजित होते-होते कोई चीज अदृश्य भी हो जाए तो भी उर्जा के रुप में वह हमारे ही चारों ओर विद्यमान रहती है। ऐसे में सत्य के गायब होने का कोई प्रश्न ही नहीं है। हां वह दिखाई न पड़े इसलिए उसके साथ हम कीमियागिरी कर लेते हैं। अपने इन निष्कर्षों के साथ गांधी जयंती मनाने के लिए तैयार होते समय सिर खुजलाते हुए मैंने विचारा कि आज सभा में चलकर इसी पर बोलना है कि भीड़ के बीच से भी सत्य को गणितीय और वैज्ञानिक विधि से कैसे खोजकर सामने लाया जा सकता है और भारत जैसे देश में इसपर काम किए जाने की सख़्त जरूरत है। रही बात अहिंसा की, तो सत्य की दुर्दशा से भयभीत हुआ कोने में दुबका यह, सत्य के प्रकट होने पर स्वत:प्रकट हो जाएगा, क्योंकि गांधी जी के ये दोनों जुड़वा हैं।
खैर, बोलने के लिए, पहले मैंने लच्छेदार बातें सोच-सोचकर अपने अंदर आत्मविश्वास पैदा किया और मंच पर आया। लेकिन यहां मुझे लगा कि मेरे सामने बैठा हर शख्स सत्य के बारे में जानता है। तो, सत्य के हालात के बारे में इन्हें क्या और कैसे बताना होगा कि यह कहां और किस हाल में है? समझ में न आने पर मेरी आवाज़ लड़खडाने लगी और मेरा मुखमंडल आवाकीय भाव से ग्रसित हो चला। अचानक मैं अपनी लच्छेदार बातें भूल गया था। अंततः असहज होकर जल्दी से जय हिंद बोला और मंच से उतर आया। मंच से उतरते समय जब मेरी दृष्टि मालाफूल से लदे-फंदे गांधी और शास्त्री की तस्वीर पर पड़ी, तो लगा जैसे मुझे देखकर वे दोनों मुस्कुरा रहे हैं।