उपन्यास अंश

लघु उपन्यास – षड्यंत्र (कड़ी 24)

अपनी बनायी योजना के अनुसार चारों छोटे पांडव अश्वों पर सवार होकर मृगया के बहाने वन में निकल गये। वहाँ माता कुंती के पास केवल युधिष्ठिर रह गये, क्योंकि माता को अकेले नहीं छोड़ा जा सकता था।

युवराज युधिष्ठिर प्रतिदिन नियमानुसार पात्र ब्राह्मणों को दान दिया करते थे। शिव भवन में आने के अगले ही दिन वे याचकों को दान दे रहे थे। एक याचक जानबूझकर सबसे पीछे रह गया था। जब अन्य सभी याचक चले गये और उसकी बारी आयी, तो वह बहुत धीमे स्वर में युधिष्ठिर से बोला- ”युवराज! मुझे महामंत्री विदुर ने भेजा है।“

यह सुनकर युधिष्ठिर आशंकित और सतर्क हो गये। उन्होंने अपने आस-पास देखा, तो कोई संदिग्ध व्यक्ति दिखायी नहीं पड़ा। वे उस व्यक्ति को महल के भीतर ले गये और कहा- ”अब निश्चिन्त होकर पूरी बात बताओ।“

वह बोला- ”युवराज, महामंत्री विदुर ने कहा है कि वन की आग समस्त जीव-जन्तुओं को जला देती है, लेकिन बिलों में रहने वाले जन्तु उससे अपनी रक्षा कर लेते हैं।“

यह कूट वाक्य सुनकर युधिष्ठिर का चेहरा खिल गया। उनको विश्वास हो गया कि इसे महामंत्री विदुर ने ही भेजा है और यह उनका विश्वस्त व्यक्ति है। प्रसन्न होकर उन्होंने कहा- ”मैं आश्वस्त हुआ, बंधु! बताइए आपको महामंत्री ने क्या आदेश दिया है?“

”युवराज! मैं एक खनिक हूँ। मैं आपके लिए सुरंग का निर्माण करने के लिए आया हूँ। महामंत्री ने कहा है कि आगामी अमावस्या से एक दिन पूर्व चतुर्दशी को आग लगायी जाएगी। मैं उससे पूर्व ही बाहर निकलने के लिए सुरंग का निर्माण कर दूँगा। मैं दिन रात महल में ही रहूँगा और सुरंग तैयार होने से पहले बाहर नहीं निकलूँगा।“

युधिष्ठिर ने इसकी स्वीकृति दे दी। सुरंग का खोदना प्रारम्भ करने के लिए उन्होंने सबसे भीतर के कक्ष को पसन्द किया, जो महारानी कुंती के कक्ष के निकट था। पुरोचन को भी उधर जाने की अनुमति नहीं थी, इसलिए सुरंग का निर्माण होने की बात उसे पता नहीं चल सकती थी। वह कक्ष महल के बाहर के जंगल के निकट भी था। खनिक ने दिशा का अनुमान लगाकर उचित स्थान से सुरंग खोदना प्रारम्भ कर दिया। उसमें से जो मिट्टी निकलती थी उसे वे महल में ही एक कक्ष में बिखराते जाते थे। ताकि उसे बाहर ले जाने पर किसी को शंका न हो।

उधर चारों भाइयों ने महल से लगे हुए जंगल में घूमकर बाहर सुरंग के खुलने का स्थान चिह्नित कर लिया और फिर वहाँ से गंगातट तक जाने का छोटा सा रास्ता भी खोज लिया, जो अधिक लम्बा नहीं था और जिसे कुछ ही घंटों में पैदल पार किया जा सकता था।

सभी पांडव दिन भर सामान्य रहते थे और अपने मनोभावों का पता किसी को नहीं लगने देते थे। वे पुरोचन के साथ भी सामान्य व्यवहार करते थे। उसका कक्ष महल के मुख्य द्वार के निकट ही था। रात्रि को पांडवों में से कोई न कोई भाई किसी न किसी बहाने से पुरोचन के कक्ष के बाहर ही रहता था और जगा रहकर सबकी रक्षा करता था, ताकि पुरोचन को आग लगाने का अवसर न मिले।

महामंत्री विदुर के एक अन्य दूत ने गुप्त रूप से युधिष्ठिर से मिलकर उन्हें सूचित किया कि वे यहाँ से त्रयोदशी को ही निकल चलें और निकट के गंगातट पर पहुँच जायें। वहाँ उन्हें एक नाव गंगा पार कराने के लिए मिलेगी। गंगा के पार राक्षसों का क्षेत्र था। उन्हें वहीं छिपकर रहना था। स्पष्ट था कि महामंत्री विदुर ने उनको हस्तिनापुर आने से मना कर दिया था, क्योंकि यह षड्यंत्र धृतराष्ट्र की अनुमति से रचा गया था और वहाँ आने पर पांडवों के प्राणों को संकट था। पितामह भीष्म भी उनकी कोई सहायता नहीं कर सकते थे, यद्यपि वे पांडवों को भी उतना ही प्रेम करते थे, जितना कौरवों को और कदाचित उससे अधिक ही। लेकिन जब पांडवों के लिए कुछ करने का समय आता था, तो उनके हाथ बँध जाते थे और वे धृतराष्ट्र के सामने असहाय हो जाते थे।

सुरंग खोदने के लिए जो श्रमिक आया था, वह वास्तव में बहुत योग्य था। अत्यन्त परिश्रम से उसने कुछ ही दिनों में सुरंग खोद दी। वह महल के पीछे के जंगली क्षेत्र में एक गुप्त स्थान पर खुलती थी, जिसे झाड़ियों से ढककर रखा जाता था, ताकि किसी का ध्यान न जाए।

पांडवों ने निश्चय किया कि हम महामंत्री विदुर के निर्देशों के अनुसार त्रयोदशी को ही यहाँ से निकल चलेंगे। उससे पहले हम महल को आग लगा देंगे, ताकि सब यह समझें कि पांडव इसमें दुर्घटनावश जलकर मर गये। पुरोचन को भी उसी में जला देना था, ताकि वह लौटकर यह न बता सके कि पांडव बचकर भाग गये हैं।

भाई नकुल ने प्रकट की- ”भ्राताश्री! यदि जले हुए महल में हमारे शव नहीं मिले, तो षड्यंत्रकारी समझ जायेंगे कि हम बचकर भाग गये हैं।“

”तुम्हारा कहना सत्य है भ्राता। हमें कम से कम 6 शव महल में छोड़ देने होंगे। एक सातवाँ शव पुरोचन का भी होगा। इससे उनको विश्वास हो जाएगा कि सभी पांडव अपनी माता सहित जलकर मर गये हैं।“

विचार विमर्श करके इसका उपाय यह निकाला गया कि विरोचन को भ्रम में डाले रखने के लिए उस दिन हम ब्राह्मणों को भोजन करायेंगे। उनके साथ ही निर्धनों को भी भोजन करायेंगे। उन्हीं में से 6 को महल में रोक लिया जाएगा। हालांकि यह बहुत बड़ा पाप होगा, लेकिन अपनी रक्षा करने के लिए हमें यह पाप अपने सिर लेना होगा। इसके अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है। सभी इस पर सहमत हो गये।

— डॉ. विजय कुमार सिंघल

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: jayvijaymail@gmail.com, प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- vijayks@rediffmail.com, vijaysinghal27@gmail.com