लघुकथा – मूर्ति शिल्पकारी
एक थका-माँदा शिल्पकार लंबी यात्रा के बाद एक छायादार वृक्ष के नीचे विश्राम के लिये बैठ गया। अचानक उसको सामने बहुत पत्थर का टुकड़ा दिखाई दिया। उसने सोचा, नवरात्रे आने वाले हैं, माता की मूर्तियाँ बना बाज़ार लगाऊँगा और अच्छी कमाई होगी| घर आकर उसने उस सुंदर पत्थर के टुकड़े को उठा सामने रखा और औजारों के थैले से छेनी-हथौड़ी निकालकर उसे तराशने के लिए जैसे ही पहली चोट की, पत्थर छुट कर दूर गिर गया।” ये सब देख उसकी बेटी भी साहस बढ़ाने लगी| दोनों उस पत्थर पर बारी-बारी चोट करते रहे| आखिर उन्होंने उस पत्थर को बहुत ही खुबसुरत देवी का रूप दे दिया| पिता शिल्पकार हंसती हुई दुर्गा की प्रतिमा बनाना चाहता था| बेटी उसकी कालरात्रि रूप में बनाना चाहती थी| दोनों की इस बात पर बहस हो गई| पिता बोला, “तूं जा मुझे काम करने दे काली, कुलक्ष्मी..जा दूर जा!” और सिगरेट पीने लगा| रात को दारु पीकर उसने फिर से मूर्ती बनाता शुरू कर दिया| बेटी पिता से लड़ पड़ी, “लोग खरीद पूजा करेंगे, पिता जी आप मूर्ती नशे में लिपत हो रहे हो।” पिता शिल्पकार, “देवी भी पीती थी और अब मैं देवी माँ के चेहरे पर अच्छे भाव ला सकूंगा|” शिल्पकार की पत्नी दोनों को डांट कर बोली, ”दोनों झगड़ा करते मूर्ति बना रहे हो ऐसा ही भाव मूर्ति के चेहरे पर भी आएगा। जा बेटी अंदर से देवी माता की फोटो सामने रख फिर मूर्ति ठीक बनेगी|” अब शिल्पकार का क्रोध सीमा ही पार कर बैठा। वो उठ खड़ा हुआ और पास पड़ी एक संटी फैंक मारी। ज़बान चलाती है…? मूर्तिकार को क्रोधित देखकर उसकी पत्नी दूर हो गयी और बेटी प्रेम भाव से सात्विक भावना लिए हृदय मूर्ति के माध्यम से रंग भर शिल्पकारी में मस्त सी थी|
— रेखा मोहन