मनहरण घनाक्षरी
पुष्पवाटिका खिली है, मधुमास मदमस्त,
विष्णु प्रिया खिल रही, तुलसी आँगन की।
बसंत की ये बहारें, भर रही अब स्याही,
अधरों पे कलम ने, कर लिया है कब्ज़ा।
ऋतुराज का आलम, फिज़ाओं में कलियों में,
कृष्ण की बाँसुरी बजी, अनुराग भरी है।
सरसों भर रही है, पुष्प पुलकित हुए,
भँवरे गुँजयमान, नृत्य कर रहे हैं।
कुंज कुश उग रहे, हर्षित प्रणय मिला,
कोयल गीत गा रही, मन हुआ बावर।
— सन्तोषी किमोठी वशिष्ठ