लघुकथा

प्रेम की परिभाषा

प्रिया,आशा और निशा आज अपनी सहेली राधा के घर पर उसे मिलने आई हैं। तीनों अपने-अपने पति के साथ प्रेम-संबंधों की बातें शुरू करती हैं।

प्रिया:-“मेरे पति मेरी कोई बात टालते नहीं।इस बार तो वैकेशन की छुट्टियों में मुझे मनाली जाने की इच्छा है। मैं अपनी ज़िद पूरी करके रही।कल ही वे टिकट बुक कराके आये है।कितना प्रेम करते है मुझे!”

आशा:-“मेरे पतिदेव भी किसी से कम नहीं है।मुझे गहनों का बेहद शौक है।इस बार तो मेरे जन्मदिन पर बैंक से लोन लेकर मेरे लिए तीस ग्राम का सोने का पैंडल सैट लेकर आये।ये प्रेम नहीं तो और क्या है?”

निशा:-“मुझे तो हौटलों में खाना खाने का एक ही शौक है।हर रविवार की शाम को मैं नए-नए हौटलों में जाने की फरमाइशें रख देती हूं।वे कभी मना नहीं करते।रविवार की शाम घर पर रसोई बनाती ही नहीं।”

राधा:-“आप तीनों बातें कीजिए मैं चाय और नाश्ता लेकर आती हूं।”
प्रिया,आशा और निशा राधा की जिंदगी के बारे में बातें शुरू करती है।बेचारी, राधा की जिंदगी कितनी नीरस है!ना कहीं आना ना कहीं जाना।गृहस्थी के बोझ को झेल रही है।उसके पति बिल्कुल रोमांटिक नहीं है।लेकिन दोनों चेहरे पर हंसी की रेखाएं हमेशा बनी रहती हैं।आखिर इसका कारण क्या है? हमारी तो बार-बार पति के साथ अनबन हो जाती है!इतने में राधा चाय को और नाश्ते की डिशें लेकर आती है।

प्रिया :-“राधा, तूं भी अपने पति के प्रेम के बारे में कुछ बता।हमें बड़ी जिज्ञासा है।”

आशा और निशा:-“हां.हां…कुछ तो बता अपने प्रेम के बारे में।”

राधा:-“हम दोनों ने मन से व्यापार को हटा दिया है। हम सिर्फ़ एक दूसरे के लिए जीते हैं।हम बिना बोले एक दूसरे के मन के भावों और विचारों को समझ लेते हैं।हम एक दूसरे के चेहरे को आसानी से पढ़ लेते हैं। हम सिर्फ़ देना जानते हैं।बदले में कुछ पाने की अपेक्षा नहीं रखते।हमें एक दूसरे की खुशी में ही संतोष मिलता है।हम एक दूसरे के भक्त हैं और दोनों ही एक दूसरे के भगवान भी।हमें कहीं जाने की इच्छा ही नहीं होती।इस छोटे-से घरौदे में ही जीवन की सारी सकारात्मक ऊर्जा मिल जाती है,क्योंकि हमारा प्रेम निरपेक्ष है।”

राधा के मुंह से प्रेम की परिभाषा सुनकर प्रिया, आशा और निशा लज्जित और चुप हो गई।तीनों में से किसी की अब आगे एक भी सवाल पूछने की हिम्मत नहीं हुई।

— समीर उपाध्याय

समीर उपाध्याय

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