गीत- बहुत छली हूँ
बहुत छली हूँ ,
अब नहीं छलना ।
ऐ ! मेरे मन ,
अब नहीं डरना।
संत्रासों के घेरे में
रिश्तों के अंधेरों मे
संदेहों के डेरे में
स्वार्थों के फेरे में
बहुत जिया है,
अब तक डर कर।
अब आगे न जीना ।
ऐ! मेरे मन
अब नहीं डरना।
तिल-तिल जलना
राख सा बिखरना
भरे नाक में जब धुआँ सा
साँस-साँस को फिर तरसना
पोर -पोर हर दर्द को सहना
बहुत सहा है ,
अब नहीं सहना ।
ऐ!मेरे मन
अब ,नहीं डरना।।
आशा की जंजीरों में
किस्मत लिखी लकीरों मे
न जिन्दा,न मुर्दा सी
दिखती इन तस्वीरों में।
रोज भाग्य के घने थपेड़े
बहुत अधिक उलझी हूँ मैं।
अब नहीं और उलझना ।
ऐ! मेरे मन
अब नहीं डरना ।
— अनिता मिश्रा ‘सिद्धि’