कविता

मेंहन्दी की तरह पिसती आयी

रिश्तों में घिसती आयी
मेंहन्दी की तरह पिसती आयी ।
मैं ही सँभालूँ रिश्ते तुम क्यों नहीं?
तुम्हारे घर वाले सम्मानीय
मेरे घर वाले का अपमान क्यों?
मैं दुल्हन बनी घर की ,
तुम्हे पूज कर दामाद बनाया
फिर ये वहशीपन क्यों ?
वर्षों से पूछती आयी
तुम गाली दो थप्पड़ मारो ,
ये अधिकार तुम्हारा है।
मैं चुप सब सहकर ,
कुछ ना बोलूँ सम्मान तुम्हारा है,
हर पल ये सोचती आयी।
आँखों के कोर गीले हुए,
सपने सारे कँटीले हुए,
तुम रोज जश्न मनाओ,
दोस्तों साथ मौज उड़ाओ ,
मैं अपने मन की करूँ
ये तुम्हे बरदाश्त नहीं,
हर पल ये सहती आयी
मेंहन्दी की तरह पिसती आयी।
रिश्तों में घिसती आई।।

— अनिता मिश्रा ‘सिद्धि’

अनिता मिश्रा 'सिद्धि'

पटना कलिकेत नगर बिहार