शिक्षा की अवधारणा और भविष्य
सबसे पहले ‘शिक्षा’ शब्द सार्थक भाव में विच्छेद करते हैं। हिंदी शब्दार्थ लिए “शिक्ष + आ” है, तो वहीं शिक्षा शब्द संस्कृत की ‘शिक्ष्’ धातु में प्रत्यय ‘अ’ लगाने से बना है। ‘शिक्ष्’ का अर्थ है- सीखना और सिखाना, ‘शिक्षा’ शब्द का अर्थ सीखने और सिखाने की क्रिया से है। शिक्षा स्त्रीलिंग शब्द है, जिसे विद्या या ज्ञानबोध से है, तो नसीहत अथवा उपदेश से भी है।
अंग्रेजी में शिक्षा का अर्थ Education और Learning से भी है। ‘शिक्षा’ शब्द के लिए अंग्रेजी में ‘ऐजुकेशन’ (Education) शब्द का प्रयोग किया गया है। ऐजुकेशन शब्द लैटिन भाषा के ‘ऐजुकेटम’ (Educatum) शब्द से हुआ है तथा ‘ऐजुकेटम’ शब्द इसी भाषा के ए (E) तथा ड्यूको (Duco) शब्दों से मिलकर बना है, जिनमें ए (E) का अर्थ है- अंदरतम और ड्यूको (Duco) का अर्थ है- आगे बढ़ाना। इसप्रकार ‘ऐजुकेशन’ शब्द का अर्थ है- अंदर की अनुभूति बाहर लाकर आगे बढ़ाना। ज्ञात हो, Education जहाँ Noun है, तो Learning शब्द Verb भी है।
शिक्षा जहाँ एक पीढ़ी द्वारा अपने से निचले पायदान में बसर कर रहे लोगों को स्वज्ञान अथवा विद्या के हस्तांतरण का प्रयास है। संस्कृत सूक्त है- सा विद्या या विमुक्तये अर्थात विद्या उसे कहते हैं जो विमुक्त कर दे। कालांतर में जरूरतों के बदलने और समाज विकास से आई जटिलताओं से शिक्षा के उद्देश्य भी बदलते चले गए।
महात्मा गाँधी ने कहा है- ‘शिक्षा से मेरा तात्पर्य बालक और मनुष्य के शरीर, मन तथा आत्मा के सर्वांगीण एवं सर्वोत्कृष्ट विकास से है।’
स्वामी विवेकानंद का कथन है- ‘मनुष्य की अन्तर्निहित पूर्णता को अभिव्यक्त करना ही शिक्षा है।’
भगवान बुद्ध के धम्मपद में यह वचन संकलित है- ‘शिक्षा व्यक्ति के समन्वित विकास की सतत प्रक्रिया है।’
हर्बर्ट स्पेंसर का कहना है- ‘शिक्षा का अर्थ अन्तःशक्तियों को बाह्य जीवन से समन्वय स्थापित कराना है।’
अरस्तू ने कहा है– ‘स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मस्तिष्क का निर्माण करने का नाम ही शिक्षा है।’
प्लेटो का कथन है– ‘शारीरिक, मानसिक तथा बौद्धिक विकास की प्रक्रिया ही शिक्षा है।’
जान ड्यूवी का कथन है– ‘शिक्षा एक त्रिमुखी प्रक्रिया है, जिनमें अध्यापक और छात्र के साथ–साथ पाठ्यक्रम भी शामिल किया जाता है, क्योंकि पाठ्यक्रम के अभाव में शिक्षणकार्य पूर्ण नहीं हो सकता है।’
एडम्स ने कहा है– ‘शिक्षा एक द्विमुखी प्रक्रिया है। जिसमे एक शिक्षक और दूसरा छात्र होता है।’
एडीसन ने कहा है– ‘संगमरमर के पत्थर के लिए जो महत्व मूर्तिकार का है, वही महत्व आत्मा के लिए शिक्षा का है।’
शिक्षा के मुख्य तीन अंग हैं– शिक्षक, छात्र और समाज। संक्षेप में शिक्षा का बोध इन तीनों से ही है। इसके साथ ही एक निश्चित समय तथा निश्चित स्थानों में विद्यालय, महाविद्यालय आदि में सुनियोजित ढंग से चलने वाली वह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा छात्र एक निश्चित पाठ्यक्रम को पढ़कर संबंधित परीक्षाओं को उत्तीर्ण करना सीखता है, किन्तु व्यापक अर्थ में शिक्षा किसी समाज में सदैव चलने वाली उद्देश्य सहित सामाजिक प्रक्रिया है, जिसके द्वारा मनुष्य में ज्ञान और कौशल में वृद्धि तथा व्यवहार में परिवर्तन होता है और उसे सुसभ्य, सुसंस्कृत एवं सुयोग्य नागरिक बनाया जाता है। मनुष्य प्रतिक्षण नए-नए अनुभव प्राप्त करता है, जिससे उसका प्रतिदिन का व्यवहार बदलते रहता है। यह सीखना-सिखाना विभिन्न समूहों, उत्सवों, पत्र-पत्रिकाओं, रेडियो, टेलीविजन इत्यादि से अनौपचारिक रूप से होता है।
बच्चों को प्रथम शिक्षा उसके माता-पिता से ही प्राप्त होते हैं। उसके पश्चात विद्यालय में कदम रखते ही बच्चे शिक्षा के प्रथम पड़ाव से रूबरू होते हैं। शिक्षाटन में शिक्षकों यानी गुरुओं का बहुत महत्व है। संत कवि कबीर कहते हैं-
“गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूं पांय।
बलिहारी गुरु आपने, गोविन्द दियो बताय।
गुरु बिन ज्ञान न उपजै, गुरु बिन मिलै न मोष।
गुरु बिन लखै न सत्य को, गुरु बिन मिटै न दोष।
गुरु पारस को अन्तरो, जानत हैं सब संत।
वह लोहा कंचन करे, ये करि लेय महंत।”
यह यही भावबोध लिए है कि अगर आपके समक्ष गुरु (शिक्षक) और भगवान दोनों खड़े है तो आप किसको प्रथम प्रणाम करेंगे ? ऐसी स्थिति में गुरु को सर्वप्रथम प्रणाम करेंगे, क्योंकि गुरु ने ही हमें ईश्वर की महत्ता को बताए हैं। गुरु के बिना ज्ञान प्राप्ति संभव नहीं, तो गुरु से ही मोक्ष प्राप्ति होती है। गुरु तो पारस नामक वह पत्थर है, जिसके स्पर्शमात्र से लोहे नामक शिष्य सोने बन जाएंगे।
व्यवस्था के दृष्टिकोण से शिक्षा को दो रूप में विभक्त किया गया है, यथा- औपचारिक शिक्षा और अनौपचारिक शिक्षा। ऐसी शिक्षा जो विद्यालयों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में चलती हैं, औपचारिक शिक्षा है। इस शिक्षा का उद्देश्य, पाठ्यचर्या और शिक्षण विधियाँ सभी निश्चित हैं, क्योंकि यह योजनाबद्ध है और क्लिष्ट है। इसमें सीखने वालों को विद्यालय, महाविद्यालय अथवा विश्वविद्यालय की समय-सारणी और कार्यक्रम के अनुसार कार्य करना होता है। इसमें परीक्षा लिए जाते हैं और मूल्यांकन कर प्रमाण-पत्र और अंक-पत्र दिए जाते हैं। यह व्यक्ति, समाज और राष्ट्र की आवश्यकताओं की प्रतिपूर्ति के लिए है। यह व्यक्ति में ज्ञान और कौशल का विकसित करती है, जिसे किसी व्यवसाय के योग्य बनायी जाती है, जिससे धन, समय व ऊर्जा का व्यय होते हैं।
ऐसी शिक्षा जिसकी पाठ्यचर्या सीखने वालों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर निश्चित की जाती है। इनमें शिक्षणविधियों को सीखनेवालों की सुविधानानुसार निश्चित किए जाते हैं। प्रौढ़ शिक्षा, सतत् शिक्षा, खुली शिक्षा, दूरस्थ शिक्षा इत्यादि अनौपचारिक शिक्षा है। कुलमिलाकर यही कहना है कि ऐसी शिक्षा जिसकी कोई योजना नहीं बनाई जाती, जो उद्देश्यविहीन हैं यानी न पाठ्यक्रम और न शिक्षण विधियाँ और जो आकस्मिक रूप से सदैव चलती रहती है, उसे अनौपचारिक शिक्षा कहते हैं। यह शिक्षा किसी मनुष्य के साथ जीवन भर चलती रहती हैं। मनुष्य जीवन के प्रत्येक क्षण में इस शिक्षा का भी महत्व है। ज्ञात हो, बच्चे की प्रथम शिक्षा अनौपचारिक वातावरण यानी घर पर रहकर ही पूरी होती है।
मौलिक दृष्टिकोण से शिक्षा को लेकर उनके अग्रांकित क्षेत्र परिभाषित हैं, यथा- मूल्य शिक्षा से तात्पर्य छात्रों में मानवता, देशप्रेम, परहितार्थ इत्यादि बहुभावनाओं को अभिहित करना है। मूल्य शिक्षा से मनुष्यों में संस्कार दिखता है, जो हमारे जीवन में मनोमस्तिष्कीय स्वच्छता प्रदान करते हैं। मूल्यों के विकास में विद्यालय की आंतरिक व्यवस्था, शिक्षकों का आदर्श, आपसी सामंजस्यता, बच्चों के प्रति भावनाओं का विकास इत्यादि का विशेष महत्व है।
वहीं शारीरिक शिक्षा वह शिक्षा है , जो शारीरिक विकास के साथ शुरू होती है और मानव जीवन को पूर्णता की ओर ले जाती है। इसके फलस्वरूप स्वस्थ शरीर, अच्छे स्वास्थ्य , मानसिक स्फूर्ति और सामाजिक एवं भावनात्मक संतुलन रखने वाला व्यक्ति ही शारीरिक शिक्षा के प्रति जागरूक हैं। इसप्रकार से शरीर और शिक्षा से मिलकर ही शारीरिक शिक्षा बना है। यह शारीरिक बल , शारीरिक क्षमता , शारीरिक फिटनेस के तत्वश: है। व्यक्ति को शारीरिक क्रियाओं के द्वारा दी जाने वाली शिक्षा ही शारीरिक शिक्षा ।
इसके साथ ही वह शिक्षा जो स्वास्थ्य संबंधी आवश्यकताओं की पहचान करने और इन आवश्यकताओं में मेल खाते उचित व्यवहार ही सुझाने के लिए दी जाती है। उसे हम स्वास्थ्य शिक्षा कहते हैं। वैसे कुछ विद्वतजन योग आदि को मूल्यरहित शिक्षा कहते हैं, किन्तु जब इसे स्वस्थता के सापेक्ष देखा जाता है तो यह महत्वपूर्ण शिक्षा हो जाती है यानी लोगों को बीमारियों को समझने, उनका स्वास्थ्य सुधारने के प्रति कृतसंकल्पित स्थिति और एतदर्थ उत्साहित करने की समूची प्रक्रिया ही स्वास्थ्य शिक्षा कहलाती हैं।
अब अंत में आती है- सामाजिक शिक्षा। शिक्षकों के लिए छात्रों के हित में एक अच्छा तरीका है कि कैसे सामाजिक शिक्षा किसी की शिक्षा में योगदान करती हैं। चूँकि अनुभव एक छात्र के जीवन का हिस्सा होते हैं, जो उनके शिक्षण के राह में होते हैं। यह सामाजिक अधिगम के सिद्धांत पर आधारित होते हैं। एक छात्र कुछ समय के लिए शिक्षक का अनुसरण करता है, जो कि रोल मॉडल होते हैं। उसका अनुकरण करने के लिए जितना संभव हो उतना प्रयास करते हैं।