सूने हैं पनघट और प्यासे हैं पोखर-ताल
संस्कृत वांग्मय का आंगन जल-महात्म्य के श्लोंको-ऋचाओं से परिपूर्ण है। आप: वंदे मातरम् कह कर प्राणिमात्र के पोषण के लिए जल को माता की भूमिका में स्वीकार कर श्रद्धा एवं सम्मान अर्पित किया गया है। लोक जीवन में जल एक देवता के रूप में वरुण पूजित एवं अर्चित हैं। हिंदू परम्परा में जन्म से मृत्यु पर्यंत समस्त कर्मकाण्ड जल के सान्निध्य में ही सम्पन्न होते हैं। नव प्रसूता द्वारा कुआं पूजन की रस्म इसी रीति का आवश्यक अंग बनकर जीवन के सर्वांगीण विकास में जल की उपयोगिता पर लोक की ललित छाप ही है। किसी अनुष्ठान हेतु उद्यत यजमान हथेली में कुश, अक्षत और जल लेकर ही संकल्पबद्ध होता है। तो सरिता एवं सरोवरों में स्नानोपरांत अंजुलि में जल लेकर सूर्य को अर्पित कर लोक के योगक्षेम की कामना के मनोहारी दृश्य भी दिखते हैं। करतल में जल लेकर ही दुष्ट पर छिड़क कर श्राप देने में जल प्रयुक्त होता रहा है। संस्कृत काव्य का प्रथम छंद ऋषि वाल्मीकि के मुख से प्रवाहित नदी नीर के जल में ही मुखरित हुआ था। जल का अर्घ्य देकर ही देवता और अतिथि के अर्चन, वंदन एवं सत्कार करने की हमारी शाश्वत परम्परा अनवरत गतिमान है। जल ही रक्त का रूप धारण कर हमारी देह में दौड़ रहा है। जल जीवन का पर्याय है, जल मानवीय अस्तित्व, अस्मिता और गौरव का आधार है। जल मर्यादा का बिम्ब बनकर उभरा तो पौरुष, शौर्य और पराक्रम का सुदृढ़ स्तम्भ भी। तभी तो किसी के अमर्यादित कर्म पर कहा गया कि उसके आंख का पानी मर गया है और युद्ध के लिए एक-दूसरे को चुनौती देने में कहते हैं कि देह में पानी बचा हो तो मैदान में आओ। इतना ही नहीं, प्राणिमात्र की उत्पत्ति भी जल में ही हुई है। मानव सभ्यताएं जल के स्रोतों-संसाधनों के आसपास ही विकसित हुईं, इसीलिए उन्हें नदी-घाटी सभ्यता कहा जाता है। पर अति आधुनिकता के दौर में भोगवादी पालने में बैठा मानव जल को केवल उपभोग की वस्तु समझ केवल वर्तमान जी रहा है। उसे बिल्कुल भान नहीं है कि उसके पैरों के नीचे की नमी सूख चुकी है। और यह नमी का सूखना दरअसल मानवीय संवेदनाओं और मूल्यों का सूखना है। प्रकृति और मानव के परस्पर आत्मीय सम्बन्धों का निर्जल एवं रसहीन हो जाना है। ऐसे रसहीन जीवन में कुंठा, घृणा, हिंसा, अमानवीयता तो सम्भव है पर प्रेम, माधुर्य, सौहार्द, सौंदर्य, समता, सद्भाव, अहिंसा एवं शांति का अजस्र स्रोत सम्भव नही।
भले ही आज की पीढ़ी ने जल संसाधनों के संरक्षण एवं सम्वर्द्धन से दूरी बना मुंह मोड़ लिया हो पर हमारे पूर्वजों ने जल संसाधनों के रूप में कुंआ, तालाब, पोखर, बावड़ी आदि न केवल निर्मित किये बल्कि उनको समाज का एक जरूरी हिस्सा मानकर संवर्धन एवं संरक्षण के लगातार उपाय भी करते रहे हैं। इसीलिए तालाब-कुंए खुदवाना पुण्य का क्षेत्र माना गया और जो सामर्थ्यवान थे वे नैतिक दृष्टि से इस जल संरक्षण परम्परा को सहर्ष स्वीकारते भी रहे। जल स्रोतों को दूषित करना पाप कर्म समझा गया। नदी, सरोवर आदि के निकट भी गंदगी करना, साबुन से कपड़े धोना वर्जित था। नदियां मां समान थी, तभी श्रम क्लांत और आतप से तप्त देह शीतल सरिता जल में अवगाहन कर पुनः नवल ऊर्जा एवं उत्साह संजो लेती। तृषित पथिक पाद प्रक्षालन कर थकान मिटा अंजुलि भर जल पान कर तृप्त हो स्वच्छ निर्मल जल के सतत प्रवाह की प्रभु से प्रार्थना करता। पर समय कहां ठहरता है। समय अपनी गति चलता रहा, पीढ़ी बदलती रही और बदलती रही सोच, दृष्टि एवं जल-दर्शन की सांस्कृतिक परम्परा। फलत: जल के महात्म्य से दूरी बनी और एक संकट सामने उपस्थित हुआ। यह संकट मानव की भोगवादी एवं अप्राकृतिक जीवन शैली से उपजा है। संकट की विकरालता का ही परिणाम है कि सम्पूर्ण विश्व में जल के प्रति जागरूकता, संरक्षण एवं संवर्धन के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ को विश्व जल दिवस मनाने की घोषणा करनी पड़ी।
विश्व के सामने एक गंभीर समस्या के रूप में उपस्थित जल संकट के प्रति हम जागरूक होकर जल संसाधनों के संरक्षण एवं संवर्धन में योगदान देने की बजाय पानी की बर्बादी और संसाधनों को नष्ट होते देख रहे हैं, मौन हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ के एक आंकड़े के अनुसार 3-4 अरब लोग प्रत्येक वर्ष एक महीने के लिए पानी की उपलब्धता की भारी कमी से गुजरते हैं। विश्व के सभी देशों में सभी नागरिकों को स्वच्छ एवं सुरक्षित पेयजल उपलब्ध कराने, जल संरक्षण के महत्व पर जागरुकता का प्रसार करने और जल के समुचित उपयोग करने के लिए 1992 में रियो डि जेनेरियो (ब्राजील) में संयुक्त राष्ट्र के पर्यावरण एवं विकास विषय पर आयोजित सम्मेलन में विश्व जल दिवस मनाने की घोषणा की गई थी। 1993 में पहली बार विश्व जल दिवस मना कर संपूर्ण विश्व का ध्यान इस गंभीर संकट की ओर खींचा गया। तब से प्रत्येक वर्ष एक थीम आधारित आयोजन पूरे विश्व में सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर संपन्न किए जाते हैं, जिसमें स्कूल-कॉलेज में जल संबंधी विभिन्न प्रतियोगिताएं यथा वाद-विवाद, भाषण, परिचर्चा, चित्र बनाना, पोस्टर निर्माण एवं वृत्त चित्र के द्वारा आम जन को जल के भयावह संकट से परिचित कराने का प्रयास किया जाता है। उल्लेखनीय है कि हमारी पृथ्वी का तीन-चौथाई भाग जल से ढका हुआ है। धरती पर उपलब्ध जल का 99 प्रतिशत सागर एवं महासागरों में है। केवल एक प्रतिशत जल ही उपयोग को उपलब्ध है। जिसका लगभग 75 प्रतिशत भाग पहाड़ों की चोटियों और ग्लेशियरों में बर्फ के रूप में जमा हुआ है। केवल चौथाई हिस्से का उपयोग ही सम्भव है जिसे कृषि, उद्योग, बागवानी, पशुपालन एवं मानव के दैनंदिन कार्य व्यवहार में उपयोग किया जाता है। जल दिवस के अवसर पर प्रत्येक वर्ष संयुक्त राष्ट्र द्वारा एक विश्व जल विकास रिपोर्ट जारी की जाती है जिसमें विभिन्न देशों में जल के संसाधनों, नागरिकों तक की जल की उपलब्धता, घटते भूजल के स्तर और किए जा रहे प्रयासों का उल्लेख होता है। 2022 की थीम भूजल ही है। आज अविवेकी उपभोग के कारण प्रति वर्ष भूजल का स्तर एक मीटर नीचे गिर रहा है। सबमर्सिबल पम्पों के अत्यधिक प्रयोग और अनवरत निरर्थक पानी निकासी, कार, बाईक आदि वाहनों एवं सड़क की धुलाई करने, जल आपूर्ति के पाइपों में लगातार लीकेज होने, नदियों में अशोधित घरेलू प्रयुक्त जल के मिलने, कूड़ा- कचरे का नदियों- सरोवरों में उड़ेलने शहरीकरण एवं कंक्रीट की चादर बिछाते जाने से वर्षा जल का धरती की कोख में न समाकर व्यर्थ बह जाने, विभिन्न उद्योगों में प्रचुरता से प्रयोग करने आदि से यह संकट उपजा है।
जल संरक्षण के लिए जरूरी है कि हमारे मन में जल के प्रति श्रद्धा का भाव जगे। जल के प्रकृतिक संसाधनों नदियों, झीलों, झरनों के अस्तित्व की रक्षा की जाये, मृतप्राय कुंओं, तालाबों को जीवित कर नये तालाब निर्मित किये जायें। दैनंदिन जीवन में जल का उचित उपयोग करें और वर्षाजल के संचय हेतु उपाय किये जायें। बच्चों से संवाद हो। निश्चित रूप से तब पनघट पनिहारिनों के मंगल गीतों से गुंजित होंगे, पोखर-ताल खुशियों से लहरा रहे होंगे। तब यह धरती समृद्ध सलिला होगी और हमारा जीवन भी होगा जल से भरा-भरा, सुरभित और शीतल।
— प्रमोद दीक्षित मलय