लघुकथा

माँ और माॅम

आज कक्षा में उसे मैथिली शरण गुप्त की कविता ‘माँ कह एक कहानी’ का पाठ पढ़ाया गया। आया के संरक्षण में पली उस मासूम को यह कोई परीकथा जैसी लगी। माँ की ममता से अनजान वह किसी काल्पनिक पात्र में खो गई।
उसके घर में माँ तो नहीं एक माॅम कभी-कभी दिखाई देती हैं। क्योंकि सुबह आया उसे तैयार कर देती है। उसके ड्राइवर अंकल स्कूल छोड़ने जाते हैं और छुट्टी के बाद वापस ले आते हैं। रात में आया ही उसे खाना खिलाकर सुला देती है।
उसे नींद नहीं आती है, तब वह देखती है कि रात ढले क्लबों और किटी पार्टियों में मस्ती कर वही माॅम लड़खड़ाते हुए कदमों से घर लौटती है। वह चाहकर भी पूछ न सकी कि ‘राजा था या रानी’। क्योंकि तीन इक्कों के सामने राजा-रानी की जोड़ी नहीं चलती।
डैड के गले में बाहें डालकर अपने कमरे की ओर जाती हुई माॅम को देखकर लगता है कि उनका वात्सल्य कहीं मर गया है। उसका मन वितृष्णा से भर जाता है। अपने नन्हें मन में वह संकल्प लेती है कि वह इन संदर्भों की पुनरावृत्ति नहीं होने देगी, जिनमें उसका शैशव बीता।
वह कहानियां/लोरियां सुनाने वाली माँ बनना चाहती है…. माॅम नहीं !

— विनोद प्रसाद

विनोद प्रसाद

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