त्रिया चरित्रं बनाम पुरुष चरित्रं
साहित्य मानव – चरित्र का जीवंत इतिहास है ,तो इतिहास मानव -चरित्र का मुर्दा साहित्य है।’महाभारत’ में भी कहा भी गया है: ‘नृपस्य चित्तं,कृपणस्य वित्तम,मनोरथाः ,दुर्जन मानवानाम। त्रिया चरित्रं, पुरुषस्य भाग्यं, देवो न जानाति कुतो मनुष्य :।।’ यही कारण है कि हमारे पुराण, महाभारत, रामायण, कथा साहित्य (कहानी, उपन्यास आदि),नाटक, एकांकी, काव्य (मुक्त ,प्रबंध काव्य, खण्ड काव्य आदि) ,संस्मरण, रेखाचित्र इत्यादि में मानव – चरित्र को विभिन्न कोणों औऱ आयामों से प्रदर्शित औऱ व्याख्यायित किया गया है। स्त्री और पुरुष के सर्वांगीण चरित्र का आख्यान मानव जाति के आदि काल से अद्यतन औऱ सृष्टि के अंत तक भी नहीं हो सका और न ही हो सकेगा। अपने अनन्त आयामों और स्वरूपों में वह अपने विविध रूप बदलता रहेगा।जैसे कोरोना का वायरस अपने नए स्वरूपों में सामने आ रहा है। ‘तू डाल -डाल मैं पात -पात’ की कहानी की पुनरावृत्ति कर रहा है।उसी प्रकार मानव -चरित्र के विविध नहीं, अनंत आयाम हैं ;जिन्हें विश्व की विविध भाषाओं के साहित्यकार, चित्रकार, मूर्तिकार आदि सभी को अपनी कला -साधना का कच्चा माल मिलता रहेगा।
मानव (स्त्री औऱ पुरुष) विधाता की सृष्टि के विलक्षण सृजन हैं।विधाता कदाचित एक मानव को बनाने के बाद उसका साँचा तोड़कर फेंक देता है।जितने स्त्री पुरुष ,उतने ही साँचे। एक साथ पैदा होने वाले जुड़वाओं के रूप – स्वरूप ,आकार -प्रकार , गुण – दोष, चरित्र आदि सब विचित्र से विचित्र ही हैं। कहीं कोई पुनरावृत्ति नहीं,पुनराकृति नहीं। समानता नहीं।धन्य हैं विधाता!
इतना सब वैविध्य होने के बावजूद कुछ ऐसे तत्त्व भी शोधित गए हैं ,जिनके आधार पर यह मान लिया जाता है कि अरे! वह त्रिया है ; ये सब चरित तो उसमें होगा ही।इसी प्रकार पुरुष की प्रकृति के प्रति भी स्थाई धारणा बन गई है। ऐसी की कतिपय उभयनिष्ठ कलाकारिताओं को दिग्दर्शन किया जाना यहाँ दृष्टव्य है।
अब प्रश्न उठता है कि पहले कौन ? स्त्री या पुरुष ? तो दुनिया के प्रचलित नियम के आधार पर स्त्री ही आगे है; तभी तो ‘लेडीज फर्स्ट’कहा गया है। उसे सम्मान देने के लिए नहीं, बल्कि उसे मूर्ख बनाकर ठगने के लिए। भले ही उसकी उत्पत्ति पुरुष की बायीं पसली से हुई हो; पुरुष की एकांतिक नीरसता- निवारण, मनोरंजन , सृष्टि के विकास आदि के लिए वह बाद में आई हो।तुलसी बाबा तो अपने रामचरित मानस में कह गए हैं: ‘नारि स्वभाव सत्य कवि कहहीं। अवगुण आठ सदा उर रहहीं।’ ‘साहस,अनृत ,चपलता,माया। भय,अविवेक,अशौच अदाया।’ तुलसी बाबा भी बहुत कहना चाहकर भी सब कुछ नहीं कह पाए। त्रियाओं के पेट में बात नहीं पचती ,इसलिए पति को भी उसे रहस्य की बात नहीं बतानी चाहिए। नौ मास के लिए ढाई किलो के टाबर (शिशु) को पेट में रख लेगी ,किंतु एक रहस्य की बात हजम नहीं कर पाती। इससे पुरुष को एक लाभ यह है कि जो बात कहने में स्वयं कोई भय हो ,शंका हो ; उसे अपनी पत्नी या किसी भी नारी को बता दें, सवेरा तब होगा ,जब वह रहस्य की बात जन -जन की जुबान पर इस शर्त के साथ होगी कि ‘किसी को बताना मत।’ और वह बात ‘किसी को बताना मत ‘ के मंत्र के बाद जंगल की आग बन जाएगी। अगर यही गुण पुरुष में हो तो उसे स्त्रीत्व से असम्मानित करते हुए यही कहा जाता है कि औरतों जैसी बात क्यों करते हैं।
स्त्रियाँ अपने रूप सौंदर्य , उसकी देख भाल, स्व सजावट ,घर की सजावट आदि के प्रति आशा से भी ऊपर तक चैतन्य रहती हैं। इसलिए शृंगार तो मानो उनका स्वभाव ही बन गया है। इसलिए पुरुष ने नारी को सोने – चाँदी की शृंखलाओं में कैद करने में सफलता पा ली। नारी में निर्लज्जता का भाव पुरुष से आठ गुना अधिक बताया गया है।भले ही पुरुष में नारी से 100 गुना अधिक विद्यमान हो। इसको नारी का सहज आभूषण भी बताया गया है।यदि ये नहीं ,तो कुछ भी नहीं। मानवेतर जीवों मोर, मुर्गा, मेढक, शेर ,गौरैया आदि में नर – नारी से अधिक सुंदर माना गया। इसके विपरीत पुरुष नारी सौंदर्य पर मरता मिटता हुआ देखा गया।
त्रिया चरित्र औऱ चाल अपने हर रंग में पुरुष से अलग ही हैं। स्त्री चाहे जैसे वस्त्र धारण कर ले , जाते हुए पीछे से ही जाना जा सकता है , गमन करने वाला पुरुष नहीं, नारी है।उसके हाथ ,पैर और कटि का विशेष हिल- डुल संचलन उसकी एक अलग ही छवि बनाता है। यही छवि उसकी पहचान बन जाती है।विधाता ने नारी कंठ को एक अलग पहचान दी है। पुरुष का कंठ भारी औऱ भर्राया हुआ।वह कोकिल कंठी है,यद्यपि कोकिल नर है ;मादा नहीं।पर सुंदरता के नाम पर कोयल को नारी बना दिया गया है।
जब चरित्र की बात होती है तो पुरुष ने नारी को ही चरित्र की मालिकीयत प्रदान कर रखी है। यद्यपि पुरुष सौ गुना अवगुण संपन्न हो, किन्तु उसकी चरित्र हीनता के चर्चे भी नहीं होते।’हम आह भी भरते हैं तो हो जाते हैं बदनाम, वे कत्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होता।’ दुनिया भर के चकला घर पुरुषों के ही कारण फूल – फल रहे हैं। यदि चरित्र की शिथिलता की बात आती है ,तो पुरुष स्त्री से मीलों आगे हैं।’लडक़ी वो अचार की मटकी हाथ लगे कीड़े पड़ जाएँ!’ पुरुष लगाए दाग देह पर और स्वयं सीधे बच जाएँ। क्या बिना पुरुष कोई भी नारी दूषित हो सकती है ? कदापि नहीं।पूरक जैविक अनिवार्य ता से पुरुष साफ बच कर निकल जाता है। पुरुष का हर ढोंग प्रत्येक अर्थ में नारी को अधोगामी बनाता आया है। आज भी बना रहा है। इसीलिए उसने नारी पर अनेक प्रतिबंध : घूँघट, हिज़ाब, पर्दा ,गहने, बिंदी , सिंदूर , क्रीम, पाउडर,लिपस्टिक, माँग,हाई हील उपानह ; सब ठगी के उपकरण।मानो वह दोयम दर्जे की नागरिक हो।पुरुष हजार गुनाह करे ,फिर भी दूध धुला। नारी आंशिक भी अपने खूँटे से हिल जाए, तो पापिन, दुष्चरित्र,वेश्या, कुलक्षणी , नगरवधू और न जाने क्या -क्या ? पुरुष के खुलेआम अत्याचार की इन्तहां। पैर की जूती ,किसने बनाया, पुरुष ही ने न?
— डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम’