चुप बैठ के शोक मनाओ ना
अनगिनत यहाँ रातें आयीं सूरज ने दमकना छोड़ा क्या
न जाने कितने भोर हुए, चंदा ने चमकना छोड़ा क्या
कितने विखरे ! कितने टूटे !
फिर भी फूल खिले होंगे, टूटी कलियां मिल जाएंगी
उपवन देख के आओ ना
चुप बैठ के शोक मनाओ ना
क्यों इतना तुम टूट गए हो, खुद से क्यों तुम रुठ गए हो
पतझड़ तो आते रहते हैं, तट सागर के कुछ कहते हैं
रोज डूबते ! रोज उबरते !
फिर भी न लहरों से डरते, एक दीप बुझ गया दीवाली का
तम के (राज) को मान लिया, और भी कितनी शिखा जल रही
उनसे उम्मीद लगावो ना
चुप बैठ के शोक मनाओ ना
एक घाव से नौवाख्वानी शुरू, नासूर लिए सब चलते हैं
तुम हवा के झोंके से उखड़े, कुछ तूफानों में पलते हैं
न लंगड़ा हैं ! न लूला है !
तो तू क्यों यहाँ डरता है, जो कोई नही कर पाया है
यहाँ तू ओ कर सकता है, शुर वीर है ! उठ जा तू !
बैठ के वक्त गवाओ ना
चुप बैठ के शोक मनाओ ना
राजकुमार तिवारी “राज”