खूँटी पर टँगी औरत
विदा हो गई, खूँटी पर टँगी औरत
जिस पर कोई भी कुछ टाँग देता
खूँटी कुछ नहीं बोलती
कभी पुराना कोट,
कभी नई कमीज
तो कभी धुँधली तस्वीर
जो नई थी वर्षों पहले
अब,चटके हुए काँच वाली तस्वीर
देख, खूँटी मौन है
इस दीवार पर लगने से पहले
चोट सहा था हथौड़े का
विरोध की हर आवाज़ पर
तीव्र प्रहार सहा था
वर्षों तक टँगी रही घर की दिवार पर
एक खूँटी, कई बोझ
हिलती रही पर फिर टाँग दी जाती
आज विदा हो गई, सुनते-सुनते
“सुहागिन जा रही,कितनी है भाग्यवान”
नर्क और स्वर्ग की दूरी तय कर गई ।
— डाॅ अनीता पंडा