अलकों के साये में आओ,
परिवर्तित हो तपन छाँव में।।
पुलकित पलकों के सपने तुम,
तुम ही नयनों की मधुराई।
चुड़ी का है मधुर निमंत्रण,
नथुनी देख तुम्हें इतराई।।
क्या समझें ‘वो’प्यार की भाषा
जिसके छाले नहीं पाँव में।
कैसे चलते पगडंडी पर,
कैसा काँटा ,चुभन है कैसी।
क्या होता है इंतजार में,
धड़कन की तड़पन है कैसी।।
त्याग समर्पण वे क्या समझे,
उलझें हैं जो पेंच -दाँव में।।
बहुत हुआ अब नहीं सहूँगी,
शहरों का ये एकाकीपन।
कोई नहीं किसी का भी है
हाथी दाँतों के ये दर्पण।।
परे चलो चालाक शहर से ,
ले चलती हूँ प्रीत गाँव में।।
— रागिनी स्वर्णकार शर्मा