गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

परस  देती है  वो हंसकर सुकून मुझ मीर के आगे ।
यूं ही  सजदा नहीं करता तेरी   तस्वीर   के  आगे ।।
हंसी खुशियों के कुछ पल मैं जहां पर छोड़ आया हूं,
तेरी  मुस्कान  पहुंचाए उसी   जागीर   के  आगे ।
बचा  लेती  है  चोटों  से तेरी  यादें   पुरानी  अब,
मेरा ये जिस्म अब आये किसी के  तीर के आगे ।
मोहब्बत की  तो किस्मत में तबस्सुम कब लिखा लेकिन,
मुकद्दर     हार     जाता    है मेरी     तदबीर     के  आगे ।
तेरी शीरीं जुबां पर ही तो खुद  को   हार   बैठा   हूं,
ये दिल वरना नहीं झुकता किसी  शमशीर  के आगे ।
वही तो खूबसूरत सा बना पैक़ार     है     दुनिया  में,
कभी आया है  जो पत्थर, ‘मानस’  पतगीर के आगे ।
#मीर       – नेता, सरदार
#जागीर   – पुरस्कार स्वरूप राजा महाराजाओं द्वारा दी गई जमीन
#तबस्सुम – मुस्कुराना
#शीरीं      – मीठा, मधुर
#शमशीर – सम्मान की तलवार
#पैक़ार    – युद्ध, जंग
#पतगीर  – छेनी, टांकी
— मनोज शाह ‘मानस’

मनोज शाह 'मानस'

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