कविता

कुछ तो है!

कुछ तो है!

फलक पर चांद नहीं है
हवाओं में कोई शोर नहीं
कैसे उड़ा आखिर में वो
बंधी उससे कोई डोर नहीं
एक अजीब सी कशमकश उठी मन में
धधकती आग लगी हो जैसे कहीं तन बदन में
कुछ तो है!

ये रास्ते भी अकेले हैं
गली सुनसान नजर आती है
आया एक झोंका हवा का अनमना
जैसे कोई अकेले में गुनगुनाती है
कोई आवाज दूर सुनाई दे गगन में
क्यों ये सन्नाटा है मेरे इस जीवन में?
कुछ तो है!

चेहरों पर देखी मैंने खामोशी
तो छाई रहती हरदम मदहोशी
कदमों की आहट है कुछ ऐसे
तारों में जैसे पुच्छल तारे सी
क्यों यह अजीब सा हुआ मिजाज है
क्या मेरा यह सच्चा स्वयं का अंदाज है
कुछ तो है!

मुखौटों से घिरा हुआ मैं करता अपनों की खोज
आईने दिखाता सबको ना डरता कविताओं का ओज
जवाबों को ढूंढने में बीता मेरा सारा दिन देखो!
कोई नहीं कल फिर से मुझे ये काम करना है रोज
मैं जैसा हूं वैसा रहूंगा सवाल मैं हर रोज कहूंगा
शिक्षा का सारथी हूं अत्याचार तो नहीं सहूंगा
अतिशयोक्ति अग्नि में जलती
लावे के अंदर शब्द माला है पलती
कुछ तो है!

प्रवीण माटी

नाम -प्रवीण माटी गाँव- नौरंगाबाद डाकघर-बामला,भिवानी 127021 हरियाणा मकान नं-100 9873845733