पाषाण – उत्सव (व्यंग्य)
देश पाषाण युग की ओर लौट रहा है। पाषाण उत्सव मना रहा है। पत्थर में भगवान तलाशे जा रहे हैं और पत्थरबाजी कर उसे बेइज़्जत होने से बचाया जा रहा है।।मानव की पहली खोज आग थी, जो उसने दो पत्थरों को रगड़कर प्राप्त किया था। आग लगाना सीख कर उसने सभ्य होने की दिशा में पहला चरण उठाया था। सभ्य मानव फिर उसी पत्थर से आग लगाने के काम कर रहा है। पाषाण युग में पत्थर से आग जलाकर जंगली मनुष्य शिकार को भूनकर स्वादिष्ट बनाता था। आज वह देश को भूनकर खाने पर उतारू है। प्रगति की ओर एक और अनोखा कदम!! सबके साथ- सबका विनाश!!!
कलयुग में यह कदम मंगल तक पहुँच गया। जीवन में मंगल ढूँढते-ढूँढ़ते हम मंगल में जीवन ढूंढ़ने पहुँच गये। बड़ी विचित्रता है। अंतरिक्ष के मंगल पर जीवन ढूँढ़ते मानव की कुंडली में यदि मंगल दिख जाय तो उसे भगाने के लिए आकाश-पाताल एक कर दिया जाता है। बनते रिश्ते बिगड़ जाते हैं।
पाषाण युग का मानव सुखी था, क्योंकि धार्मिक नहीं था। “नो मंदिर! नो मस्जिद! नो गुरूद्वारा। ये सारा संसार हमारा।” खुदा-भगवान के लफड़े में नहीं पड़ता था। जंगली कहीं का! नंगा घूमता था। सभ्य हुआ तो पहनना-बोलना सीख गया। गाली बकना, निंदा-स्तुति करना सीख गया। जिस ईश्वर ने उसे बनाया, उसी की शान में गुस्ताखी करने लगा। सारी जिंदगी स्कूल-कॉलेजों में यह रटते-रटते बीत जाती है कि
सबकी पूजा एक ही, अलग-अलग है रीत।
मस्जिद जाये मौलवी, कोयल गाये गीत।।
लेकिन ज्ञानी होते ही वह सब भूल जाता है और परमात्मा के अलग-अलग नामों के लिए लड़ना शुरू कर देता है। ज्ञान मनुष्य के चक्षु खोल देता है। अर्जुन अज्ञानी था। युद्ध नहीं करना चाहता था। कृष्ण के उपदेश ने उसने ज्ञानी बना दिया। परिणाम सामने है। वह लड़ने पर उतारू हो गया। ज्ञानी मनुष्य खतरनाक होता है। वह एटम बम बनाता है। आदि जंगली मानव पत्थर को हथियार बनाता था, शिकार कर भोजन के लिए। असभ्य-अशिक्षित!!! आज भी हथियार ही बनाता है। दूसरे का सिर फोड़ने के लिए। सभ्य सुशिक्षित!!!
ईश्वर अंतर्यामी है। बिना किसी साधन-संसाधन के मन के भक्त की बात सुन लेता है। बाबा तुलसी कह गये कि –
“बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना। कर बिनु करम करइ बिधि नाना॥
आनन रहित सकल रस भोगी। बिनु बानी बकता बड़ जोगी॥”
और कबीर दद्दा तो यहाँ तक कह गये कि- “कांकर पाथर जोड़ी कै मस्जिद लई चिनाय। ता चढ़ी मुल्ला बाँग दे, बहिरा हुआ खुदाय।।” उस अंतर्यामी को भक्तों ने बहरा घोषित कर दिया। ईश्वर ने मानव को जन्म देकर उसे कलपुर्जे बनाना सिखाया था। कलयुगी मानव ने ईश्वर को ही कलपुर्जा बना दिया। मनमाफिक उसे बजा रहे है। नचा रहा है।
कान के कच्चों और अकल के अंधों से आज तक कोई नहीं जीत सका। कान और आँख का प्रयोग कर, बुद्धि की कसौटी पर खरा उतरनेवाला ज्ञान “विवेक” कहलाता है। विवेकानंद की धरा पर आज दिनदहाड़े विवेक का सामूहिक वध हो रहा है। जब भक्ति अंधभक्ति में और आस्था मादकता में बदल जाय तो वह घृणित हो जाता है। बेचारा ईश्वर बदनाम हो जाता है। देश बर्बाद हो जाता है। पाषाण के देवता को पूजने वाले के खिलाफ पाषाण को न पूजनेवाला भक्त पाषाण हाथों में उठा लेता है। उसकी आँखों में खून उतर आता है और कानों में खौफनाक आवाज़ें। मानव बर्बर, दानव, हिंसक हो जाता है। बिना नख और खूंखार दाँत वाले हिंसक पशु से भी भयानक!! और देश पाषाण युग की ओर लौट पड़ता है। तब मातृभूमि कराह उठती है –
कैसा अज़ीब दस्तूर होता जा रहा है
इंसान कितना मगरूर होता जा रहा है
चाँद-सितारों के करीब तो हो रहा है
पर इंसानियत से दूर होता जा रहा है।
— शरद सुनेरी
सटीक सामयिक चिंतन