कविता

पिता

 याद आ रही हैं वह शक्ल जो अनुभव की जुरियों से मंडित थी
मजबूत कंधे भी धीरे धीरे जुकने लगे  थे
और बालों की कालिमा उजालों की ओर जा रही दिखती थी
कुछ तो था जो मैं नहीं समझी थी लेकिन मां सब जानती थी
उम्र भर जिसने घर का बोझ  खुशी खुशी से उठाए फिरते थे
कुछ भी बोल कर भी सबकुछ जान लिया करते थे
कुछ नहीं चाहकर भी सबकुछ दे दिया करतें थे
एक ही सपना लिए वे जिया करते थे
सब बच्चों की प्रगति की फिराक में ही जिया करते थे
लिखा करते थे जिंदगी के हर पन्ने पर कुर्बानी की कहानी अपनी।
जिसे नही पढ़ पा रहे थे उनके  ही अपने
भाई बहन की जिम्मेवारी हुई पूरी तो आई बच्चों की बारी
क्या वे ऐसे गीत थे जिन्हे गया ही न गया
लेकिन अपने पापा को हमसे कभी भी भुलाया न गया
— जयश्री बिरमी

जयश्री बिर्मी

अहमदाबाद से, निवृत्त उच्च माध्यमिक शिक्षिका। कुछ महीनों से लेखन कार्य शुरू किया हैं।फूड एंड न्यूट्रीशन के बारे में लिखने में ज्यादा महारत है।