प्रभुवंदना की कुंडलियाँ
(1)
अंतर में शुचिता पले,तो हो प्रभु का भान।
वरना मानव मूर्ख है,कर ले निज अवसान।।
कर ले निज अवसान,विधाता को नहिं जाने।
चिंतन का उत्थान,तभी विधि को पहचाने।।
सच का हो संसार,यही सद्गति का मंतर।
सपने हों साकार,चेतना है यदि अंतर।।
(2)
खिलता है जीवन तभी,जब है उर निष्पाप।
कर्म अगर होते बुरे,तो जीवन अभिशाप।।
तो जीवन अभिशाप,आत्मा को शुचि रखना।
सपनों का संसार,झूठ का फल नहिं चखना।।
जब सच का संसार,उजाला तब ही मिलता।
हर पल बिखरे हर्ष,खुशी से जीवन खिलता।।
(3)
मानवता की राह चल,मानव बने महान।
कर्मों में हो चेतना,तो हर पल उत्थान।।
तो हर पल उत्थान,दया-करुणा को वरना।
कहते हैं जो धर्म,उसी पथ पर पग धरना।।
मिलते तब भगवान,नहीं किंचित दानवता।
ईश्वर पर विश्वास,संग में हो मानवता।।
— प्रो (डॉ) शरद नारायण खरे