पावन बेला फिर आई है
किसने उगला ज़हर यहाँ और, किसने आग लगाई है?
धर्म धरा पर यह किसने, नफरत की फसल उगाई है?
आस्तीन का साँप कभी, माता का लाल नहीं होता
जयचंद अगर न होते तो, कलुषित ये भाल नहीं होता
हाथों में पत्थर थामे क्यों, फिर बहकी ये तरुणाई है?
धर्म धरा पर यह किसने, नफरत की फसल उगाई है?1।
सिर क़फ़न बाँधकर जब इसकी, रक्षा का भार उठाना है
जब अपने लोहित-चंदन से, इसका आँचल महकाना है
क्यों देशद्रोहियों संग मिलकर, तुमने शमशीर उठाई है?
धर्म धरा पर यह किसने, नफरत की फसल उगाई है?2।
कटनेवाले तुम सरहद पर, क्यों कलदारों में बिकते हो?
तुम बब्बर-शेरों के वंशज, आदमखोरों-से दिखते हो!!
अब इन काली करतूतों से, भारत माता शरमायी है
धर्म धरा पर यह किसने, नफरत की फसल उगाई है?3।
है कर्ज़ बड़ा इस माटी का, तुम सिक्कों से यूँ ना तोलो
यह सौदा शीश चढ़ाने का, भाषा बलिदानों की बोलो
चरणों में भाल समर्पण की, पावन बेला फिर आई है।
धर्म धरा पर यह किसने, नफरत की फसल उगाई है?4।
— शरद सुनेरी