कविता

प्राण के बाण 14वीं किश्त

कवि न उठा तो दानवता से नैतिकता डर जायेगी।
नैतिकता डर गई उसी क्षण मानवता मर जायेगी।।1।।
चारों ओर कलह कोलाहल कुण्ठा क्रोध जलनपन है।
कुछ भी सुलझा हुआ न लगता सुलझन में भी उलझन है।।2।।
कहने को अपना शासन है पर कुछ ऐसा लगता है।
अपनों में अपनापन पाना सपनों जैसा लगता है।।3।।
भारत माता मुक्त हुई थी अंग्रेजी जंजीरों से।
लेकिन फिर से बनी बन्दिनी घर की ही प्राचीरों से।।4।।
सोचा था हम याद करेंगे मिलकर अमर शहीदों को।
जिनकी प्राणाहुति का ऋण है उन बलिदानी वीरों को।।5।।
जब तक उनका पूजन होता खुशियों ने मुँह फेर लिया।
पितर ‌श्राद्ध करने से पहले कौओं ने घर घेर लिया।।6।।
कटु सत्य
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जिस पल मृत्यु प्रिया से तेरा,
तार यार जुड़ जायेगा।
उस दिन से तू दुनिया दारी,
छोड़ छाड़ मुड़ जायेगा।।
कंचन काया मिट्टी होने,
की ज़िद पर अड़ जायेगी,
उस पल प्राण परिन्दा पिंजरा,
तोड़ ताड़ उड़ जायेगा।।7।।
— गिरेन्द्रसिंह भदौरिया “प्राण”

गिरेन्द्र सिंह भदौरिया "प्राण"

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