कविता – झूठ
झूठ की बुनियाद पर
टिकी है जिंदगी
कभी खुद अपने आप से झूठ
कभी प्रभू की विनती में झूठ
कभी अपनों की खुशी में झूठ
कभी खुशियों को दबाने के लिए झूठ
कभी अपनी पीड़ा छुपाने के लिए झूठ ।
मन अनगिनत झूठ
की कब्रगाह बनता जा रहा
कभी सिसकता कभी चहकता
झूठ का लबादा ओढ़ कर
दिल अंदर ही अंदर सिसकता ।
क्यों इतने सारे झूठ जमा हो रहे
शायद संस्कार के बीज ही खोखले हैं
नव अंकुरित सोच के लिए जगह नहीं
खुद से बात कर खुद ही इंसाफ कर
क्यों झूठ आदत में शुमार है ?
सच क्यों भयभीत और लाचार है ।
किस्मत को दोष दे कर कहते
स्वयं से ही, जैसी करनी वैसी भरनी।
व्यर्थ में लगा झूठ बोलने का रोग
बच सकते हैं आज भी
छोड़नी होगी यह झूठ का रोग ।
— आरती रॉय