तब तुम्हे न रही अब हमें न रही
जो पिया जा न सका वो पीना पड़ा मुझको
एक एक घूंट उतार कर जीना पड़ा मुझको
अब तुम्हे देख कर बड़ा आसान लग रहा
फटी हुई थी जिंदगी सीना पड़ा मुझको
न इश्क़ काम आया न मुश्क काम आया
जो साथ दे रहे थे वो अश्क़ काम आया
इस दौर दयार में जरा सी हंसी मिल गयी
उस दौर की, बेबसी में जीना पड़ा मुझको
फुर्सत भी क्या चीज है एक साथ न रही
तब तुम्हे न रही अब हमें न रही
साहिल पे बैठ कर ढूंढते मोती तुम रहे
मंझधार का पानी पीना पड़ा मुझको
त्रास में भी आस लेकर हम बह गए
नामी से तुम भी रुख़सत हो गए
“राज” कोई सागर के यहाँ समझ न का
विपरीत सू पे होंठ सीना पड़ा मुझको
राजकुमार तिवारी ”राज”