मुझे फुर्सत नहीं
भारतीय सामाजिक संरचना हजारों वर्ष पुरानी है। विभिन्नता में एकता को प्रदर्शित करना और हमारे पूर्वजों बड़े बुजुर्गों द्वारा शाब्दिक तानों बानों में अनेक कहावतों की एक शाब्दिक संरचना कर डाली है, जो आज के इस आधुनिक डिजिटल युग में भी हम सटीक महसूस करते हैं जबकि हजारों वर्ष पूर्व तो इसकी शाब्दिक रचना करने वालों ने भी नहीं सोचा होगा कि इसकी सटीकता हजारों वर्ष के बाद भी प्रमाणित होते रहेगी। वैसे तो अनेक कहावतें हैं पर आज हम अपने आप को बहुत व्यस्त बताते हैं, हर बात पर कहते हैं मुझे टाइम नहीं मिला, मैं बिजी हूं, मुझे फुर्सत नहीं, परंतु अगर वहीं पर मेरे बहुत काम का, फायदे का, किसी प्रकार की वित्तीय प्रलोभन का अवसर आ जाएगा तो मैं झट से टाइम निकाल लूंगा, इसका अर्थ हजारों वर्ष पूर्व ही कहा गया था काम एक पैसे का नहीं फुर्सत एक मिनट की नहीं, काम बिल्कुल नहीं फिर भी समय नहीं, काम कौड़ी का नहीं फुर्सत ढेले की नहीं, बताते चलें कि कौड़ी और ढेला भारतीय मुद्रा की अत्यंत प्राचीनतम इकाई है कौड़ी थोड़ी छोटी और ढेला उससे बड़ी इकाई है, इसलिए हम इस कहावत सहित तमाम कहावतों, लोगोस, पंक्तियों पर जो इसपर आधारित है, असल में व्यस्त रहना अक्सर हमारे विचारों के अकेले होने और असुविधा के लिए बनाया गया एक बहाना है जो मानवीय स्वभाव बन गया है इसलिए आज हम इस आर्टिकल के माध्यम से, मुझे फुर्सत नहीं है परंतु काम एक पैसे का नहीं फुर्सत एक मिनट की नहीं इस पर चर्चा करेंगे।
बात अगर हम मुझे फुर्सत नहीं की करें तो हम अक्सर अपने आसपास निरंतर यह सुनते रहते हैं कि वह शान से कहते हैं, मुझे फुर्सत नहीं, परंतु हम महसूस करते हैं कि यह कहने की बात है, फुर्सत तो निकल ही जाती है किसी ने खूब ही कहा है कि, बिजी होना पर्याप्त नहीं है बिजी तो चीटियां भी होती है सवाल उठता है हम कहां बिजी हैं यह शानदार विचार है। हमें इसका जवाब ढूंढना चाहिए।
बात अगर हम जिंदगी को फुर्सत देने की करें तो, जिंदगी को फुर्सत की जरूरत काम से कुछ कम नहीं है, लेकिन बेहिसाब ख़्वाहिशें यह बात समझने नहीं देतीं। जो समझते हैं वे तमाम व्यस्तताओं के बावजूद समय निकालते हैं और इसे एक उत्सव की तरह मनाने के नित नए तरीके भी ईजाद कर लेते हैं। वाट्स ने लिखा है कि लोग पैसे बनाना और बचाना तो जानते हैं लेकिन उसका इस्तेमाल करना नहीं, वे जिंदगी का आनंद लेने में असफल रहते हैं क्योंकि वे हमेशा जीने की तैयारी कर रहे होते हैं। एक जीवित कमाई करने के बजाय वे अधिक कमाई कर रहे हैं, और इस प्रकार जब आराम करने का समय आता है तो वे ऐसा करने में असमर्थ होते हैं। 70 वर्षों में भी कुछ बदला नहीं है।
बात अगर हम किसी के विचारों की करें तो, कुछ लोगों के लिए फुर्सत का मतलब चार दीवारों के दायरे से थोडा आगे बढकर बाहर निकल कर कुछ करना होता है। यह किसी बाजार या मॉल में जाकर शॉपिंग करना हो सकता है, किसी अजीज दोस्त या रिश्तेदार से मिलना हो सकता है, किसी स्पोट्र्स क्लब में जाकर दो-चार हाथ आजमाने की कोशिश हो सकती है, कोई हॉबी क्लास ज्वाइन करना हो सकता है या फिर कुछ और, कुछ लोग योग या ध्यान के शिविर में चले जाते हैं, शरीर और मन दोनों को हलका करने, दोनों के विष निकाल कर खुद को बिलकुल नया कर लेने के लिए। जिसकी जैसी भी पसंद हो, उसी के अनुरूप वह अपने लिए अपने दैनिक रुटीन से अलग हटकर कोई काम ढूंढ लेता है। ऐसा काम जो उसे उसके रोज के टाइट शेड्यूल से थोडा ढीला होने का मौका देता है। यह ढीला होना उसके लिए ऐसे ही होता है जैसे दिन भर की भागदौड के बाद पांव पसारना।
बात अगर हम फुर्सत के चाहत की करें तो, अपने शौक पूरे करने से लेकर सपनों का संसार बसाने और आराम से जीने भर के लायक धन कमाने तक के लिए काम करना तो सभी चाहते हैं, पर काम के साथ-साथ फुर्सत की चाहत भी सबके भीतर होती है। फुर्सत की चाहत का यह मतलब बिलकुल नहीं कि ‘आराम बडी चीज है, मुंह ढक के सोइए वाली पोजीशन में आ जाएं। हालांकि हो सकता है कि कुछ लोगों के लिए यह मतलब भी हो और वैसे भी दिन-रात पसीना बहाते इंसान के लिए जरा से आराम की चाहत कोई गुनाह थोडे ही है। बहुत लोगों के लिए आराम का मतलब भी मुंह ढक के पड रहना नहीं होता। उनके लिए इसका मतलब बस घर में बैठे-बैठे कुछ-कुछ करते रहना होता है। कुछ-कुछ यानी कभी किसी कमरे को नए सिरे से सजाना तो कभी कोई किताब पढऩा, बहुत दिनों से अधूरी पडी किसी पेंटिंग को पूरा करने की कोशिश या हारमोनियम-तबला लेकर बैठ जाना, किसी भूली बिसरी धुन पर सिर धुनना और कोई सिरा पकड में आ जाने पर उसी की मस्ती में खो जाना, ऐसा कुछ भी या इससे भी भिन्न कुछ और, बस घर में बैठे-बैठे करते रहना। संस्कृति के श्लोक में भी आया है कि,
पीत्वा मोहमयीं प्रमादमदिरा मुन्मत्तभूतं जगत् ॥ सूर्य् के अवागमन से दिनबदिन इन्सान की जिंदगी कम होती जाती है । व्यापार/व्यवसाय के काम में व्यस्त समय कब निकल जाता है, उसका ध्यान नहीं रहेता । जन्म, जरा (बुढापा), विपत्ति और (साक्षात्) मृत्यु देखकर भी हमें डर नहीं लगता !
गुजर गया आज का दिन पहले की तरह
ना उनको फुर्सत थी ना हमें ख्याल आया है
मैं व्यस्त हूं यह झूठ अब बड़ा सच बन गया है
सबको अपने से मतलब है इसलिए सब व्यस्त हैं
अतः अगर हम उपरोक्त पूरे विवरण का अध्ययन कर उसका विश्लेषण करें तो हम पाएंगे कि मुझे फुर्सत नहीं, काम एक पैसे का नहीं फुर्सत एक मिनट की नहीं, व्यस्त रहना अक्सर हमारे विचारों के अकेले होने की असुविधा के लिए बनाया गया एक बहाना होता है।
— किशन सनमुखदास भावनानी