ग़ज़ल
मिली न मंज़िल रहे न सहचर घुमा-घुमाकर नसीब लाया
कहाँ-कहाँ से भटक-भटककर यहाँ तुम्हारे क़रीब आया
मधुर-मधुर जल मधुर-मधुर फल मिले तुम्हारी उदारता से
सटीक औषधि नवीन कपड़े कृतज्ञ कितनी ग़रीब काया
अगर यही था भला गुज़ारे बरस-बरस क्यों निरे अकेले
सदृश्य संबंध ये हमारा अदृश्य की है अजीब माया
— केशव शरण