कविता – सीता
जनकपुरी की बगिया में इक सुंदर सी कली खिली
रंग गुलाबी होंठ लाल ये बात नगर में फैल गयी
हल की सीधी रेखा से जन्मी तो सीता कहलायी
वैदेही मैथली सिया से सारी मिथिला हर्षायी
नील गगन मुस्काए गाए धरती धानी रंग हुयी
हरे पेड़ लहराएं गायें और सुनहरी भोर हुई
पीली -पीली सरसों भी खेतों लहराए नृत्य करे
अमराई में काली कोयल कुहुक-कुहुक कर शोर करे
धीरे -धीरे सीता भी चंदा क जैसी बड़ी हुई
सभी कालाएं हर शिक्षा में धीरे -धीरे निपुण हुई
इक दिन मां गौरी का मंदिर सीता जी ने स्वच्छ किया
चौकी से शिव धनुष उठा कर माथ लगा आशीष लिया
देख जनक ने करी प्रतिज्ञा जो भी चाप चढ़ाएगा
सीता से विवाह करने का वह ही गौरव पाएगा
श्वेत रंग की साड़ी पहने सुकुमारी सीता प्यारी
खड़ी स्वयंबर सभा बीच थी वर माला कर में धारी
काले नीले भूरे चेहरे हुए धनुष न हिला सके
रावण का मुख हुआ बैगनी दर्प सभी के चूर हुए
गुरु की आज्ञा सिर धारण कर राम सभा में फिर आए
शीश झुका शिव धनुष के आगे पल में धनुष उठा डाले
प्रत्यंचा शिव धनुष चढ़ाई धनुष बीच से टूट गया
भीषण हुई गर्जना जिससे परसु सिंहासन डोल गया
नील कमल से नयन लजाए मन ही मन आनंद भरे
वर माला ले चली सिया पहने माला श्री राम हरे
नीले पीले लाल गुलाबी नारंगी बैगनी सभी
गगन मार्ग से लगे बरसने भांति भांति के पुष्प तभी
सिया राम जय राम सिया जय की ध्वनि से धरती गूँजी
अनुपम जोड़ी राम सिया की मिथिला नगरी की पूंजी
जनक नंदिनी धवल वर्ण माँ लक्ष्मी मिथिला में उतरी
‘मृदुल’ मनोहरता मोहकता पावनता शुचिता गहरी
— मंजूषा श्रीवास्तव ‘मृदुल’