उज्ज्वलता
अतीत की खिड़कियों से कई बार ताज़ी हवा आती है. आज किसी कोने से उज्ज्वल की उज्ज्वलता याद आ रही है, मानो कह रहा है-
“दिया ज़रुर जलाऊंगा चाहे मुझे ईश्वर मिले न मिले,
हो सकता है दीपक की रोशनी से कोई मुसाफिर को,
ठोकर लगने से बच जाए और उसे सही राह मिले.”
यही तो वह हर वक्त कहता और करता था! खाने को घी-तेल न मिले न सही, पर शाम का धुंधलका होते ही वह तेल से भरकर देहरी पर एक बड़ा-सा दीपक जला देता था. यही उसकी पूजा भी थी और पिता की सीख की सच्ची स्मृति भी.
इसी दीपक की उज्ज्वलता ने एक दिन एक बड़ी-सी फैक्टरी के मालिक उदयशंकर को कोबरा के डंक से बचाया था. उस दिन दीपक के प्रकाश के अभाव में उदयशंकर को न तो कोबरा दिखता, न वे अपना बचाव कर पाते.
दीपक जलाने को धन्यवाद कहने के लिए उस छोटे-से घर में प्रविष्ट हुए. घर भले ही छोटा था, पर रहने वाले का दिल बहुत बड़ा था. सो उनका बड़ी विनम्रता और विशालता से हार्दिक स्वागत हुआ.
“घर में और कोई नहीं दिख रहा?” उदयशंकर ने पूछा था.
“जी मैं अकेला ही हूं, माता-पिता का स्वर्गवास हो चुका है.” उज्ज्वल ने कहा था.
“क्या करते हो?”
“जी, बी कॉम कर रहा हूं.”
“बाहर दीपक रोज जलाते हो?”
“जी, पिताजी ने यही सिखाया था.”
“जानते हो आज इस दीपक के प्रकाश ने मेरे जीवन को अंधकारमय होने से बचा लिया है. इस दीपक की ज्योति न जल रही होती, तो कोबरा ने मेरी जीवन-ज्योति बुझा दी होती.”
“अवश्य प्रभु-कृपा ही होगी.”
“हमारे साथ रह सकोगे? मुझे तुम्हारे जैसे मैनेजर की जरूरत है.”
“जी, यह भी प्रभु-कृपा ही होगी!”
दीपक की उज्ज्वलता ने उज्ज्वल के जीवन में उज्ज्वलता की ज्योति जला दी थी.