कविता – पिता
बूढ़ी हो चली काया
झुर्रियाँ हैं इसकी गवाह,
बूढ़ा बरगद -सा
बाप है फिर भी खड़ा
निज अनुभव से
संतान को देता सलाह
कहीं ठोकर न खाए बेटा
दिन -रात फिक्र है करता।
अबूझ पहेली, पिता का त्याग
परिवार की बुनियाद है बाप।
जड़ें इसकी रहें सबल
देते रहो आदर का जल।
— निर्मल कुमार डे