कविता

कविता – पिता

बूढ़ी हो चली काया
झुर्रियाँ हैं इसकी गवाह,
बूढ़ा बरगद  -सा
 बाप है फिर भी खड़ा
निज अनुभव से
 संतान को  देता सलाह
 कहीं ठोकर न खाए बेटा
 दिन -रात फिक्र है करता।
अबूझ पहेली,  पिता का त्याग
परिवार की बुनियाद है बाप।
जड़ें इसकी रहें सबल
देते रहो आदर का जल।
— निर्मल कुमार डे

निर्मल कुमार डे

जमशेदपुर झारखंड nirmalkumardey07@gmail.com