प्रातः बेला
प्रातः बेला की ये है मेला
राही फिर भी खड़ा अकेला
सूर्य की किरण ने दी आवाज
कहाँ छुपे हो मेरे हमराज
खग कलरव कर शोर मचाता
चहचहाहट में गीत है सुनाता
कितना सुन्दर आया नया दिन
जग मग करता धरा पे जमीन
शबनम ने बहुत ही अश्क बहाई
ऑसू उनकी दूब को नहलाई
पूरव की लाली अति सुहावन
तरो ताजा हुआ वन उपवन
नई ताजगी ले हवा है आई
सरिता कल कल नीर बहाई
चलो घूम आयें हर दिन
सागर में खेलें बन कर मीन
जब जब जाड़ा का दिन आता
ठंडक सब को बहुत सताता
पूरब की लाली दिखलाती शान
लो आ गया दिन का दिनमान
— उदय किशोर साह