ग़ज़ल
हसरतों की बात न पूछो यहां
उम्र कम होती गई, हसरतें बढ़ती गई!
करार जितना ढूंढते रहे यहां
बेकरारी उतनी बढ़ती गई
वफादारी तो मानो यहां
बस किताबों में सिमट गई
चालबाजी के माहौल में यहां
मासूमियत कहीं खो-सी गई
इंसान और इंसान के बीच यहां
इंसानियत कहीं गुम-सी हो गई
किस-किस का हाल कहे यहां
संवेदना कहीं गुम-सी हो गई
अपना और अपनापन तो यहां
बीते जमाने की बात हो गई
— विभा कुमारी “नीरजा”