कहानी

कहानी – नदी में बहता लेखक

उसने अपनी लिखी सारी की सारी किताबें उठाईं और नदी के किनारे चमचमाते सूखे पत्थरों पर अपना किताबों का बोझा रखकर साफ़ नीले पानी की तेज़ धारा को देखने लगा। वह जैसे नदी से बातें करने लगा, ”वाह रे पानी! क्या गति है तुम्हारी! कभी मैं भी इस गति से दौड़ता था, पर यह विचारों से पैदा हुए अभिमान की गति थी। तुम तो नश्वर हो फिर भी दौड़ रहे हो, चलो तुम्हारी इच्छा, पर देखना, जो मैं यह बोझा उठा कर लाया हूँ उसके भ्रम में मत आ जाना। इस बोझे से मुझे यह भ्रम हो रहा है कि मैं बुद्धिमान हूँ, अब मेरा यह भ्रम मैं तुम्हारे हौंसले के रथ के हवाले कर रहा हूँ, हो सके तो उसके अंदर जो विचारों के कण है उन्हें अपने साथ एक लंबे सफ़र तक ले जाना, उन्हें पत्थरों से टकराना, ताकि उन्हें ज़रा होश आए, उन्हें रेत के कणों में भटकाना, जैसे तुम भी भटकते है, फिर रेत से छनकर वे थोड़ा स्वच्छ हो जाएँगे, फिर उन्हें किसी झरने से गिराना, ताकि वे अपनी कठोरता को तोड़ सकें, पर एक प्रार्थना है उन्हें स्थिर मत होने देना।
”मैंने चाहे उन्हें काग़ज के पन्नों पर लिखा है पर वे बड़े क्रीयाशील जीव है। वे एक स्थान पर टिक नहीं सकते, वे अर्जुन, कर्ण व एकलव्य जैसे योद्धाओं के तीर हैं जो गांडीव में चुपचाप सो नहीं सकते। उन्हें कभी अपने संग आसमान की ओर ले जाना, जैसे तुम यात्रा पर निकल जाते हो वाष्पीकरण होकर, फिर अपने जैसे छोटे महीन कणों से मिलकर आसमान में लंबी यात्राएँ करते हो, फिर किसी किसान के खेत को सिंचित करते हो और उसका आशीर्वाद लेकर बड़े प्रफुल्लित होते हो।
”तुम्हारी यात्रा में कई पड़ाव हैं, यह तुम्हारा कर्म मार्ग है ज़रा इन बेजान शब्दों को संवेदना सिखाकर अपने जैसा बनाने का प्रयत्न करना।
”मैंने इन शब्दों के खेतों में कुछ हल जोता है, कुछ बीज भी डाले, सिंचित किया लेकिन इनसे सिर्फ़ संवेदना के काँटों वाली कुछ झाड़ियाँ ही उर्गाइं जो मेरे ही शरीर में चुभने लगीं और मेरे लिए दर्द के ज़ख्म दे गईं। जब ये काँटे मेरे शरीर में चुभे तो फिर कुछ मेरी नाजुक चमड़ी में घुस गए और उन काँटों ने फिर ज़ख्म के घोंसले बनाना शुरू कर दिया।
”एक दिन जब ये ज़ख्म बढ़ते गए तो मुझे अपने गाँव के मस्तू दादा का ख़्याल आया। मस्तू दादा हमारे गाँव के आखि़री दो चार बचे बूढ़ों में से एक है और प्राकृतिक जड़ी बूटियों से आसपास के गाव वालों के कई तरह के जख्मों का इलाज करता है। मैं अपने गाँव की ओर निकल गया। गाँव में मैंने सबसे पहले पड़ोस वाले मस्तू दादा से अपनी बीमारी बताई। मस्तू दादा मेरी दशा देखकर बोले,‘वैसे जो तुम चाहते हो बंधु, वह मेरे पास नहीं है। मैं तो सिर्फ़ शरीर में घुसे काँटे निकालता हूँ, बुद्धि और विचारों में घुसे काँटे नहीं, तुम तो शायद किसी बड़े मनोरथ के लिए तड़फ रहे हो। अच्छा, एक उपाय है। हमारेे गाँव के साथ वाले गाँव में एक बूढ़ा रहता है। तुम वह रास्ता पकड़ लो। यहाँ से आगे गाँव पार करके दाईं ओर की पगडंडी पर चलते जाना, आगे एक गहरा नाला आएगा, वहाँ तीन बरगद के पेड़ों के नीचे एक छोटा सा मंदिर है, मंदिर के साथ ही एक घराट मिलेगा। वहाँ पर एक बूढ़ा तुम्हें हुक्का गुड़गुड़ता मिलेगा। लोग कहते हैं कि वह ईश्वर की ध्वनि को समझता है, उसकी बातें भी तेरी तरह ही एक पगलाए व्यक्ति सी होती हैं। तुम अगर सचमुच में ही थोड़ी शांति चाहते हो तो एक बार उससे मिल लेना, तुम्हें वह जगह भी बड़ी अच्छी लगेगी। वैसे तुम अपने सुंदर और महंगे वाहन पर आए हो, तो फिर थोड़ा पैदल जाकर कसरत भी कर लो और अगर हो सके तो उस बूढ़े से टपकती ज्ञान की धारा में गोते लगा लो।’
मैं बोला, ‘नहीं, मेेरे बूढ़े सलाहकार! मुझे तो अब ज्ञान से बदहज़्मी हो चुकी है और भगवान के वास्ते किसी ज्ञानी से मिलने की मुझे सलाह भी मत दो। मैं इस ज्ञान से ही तो परेशान हूँ। मैं थक गया हूँ, मुझे कोई और रास्ता बताओ, मेरा दर्द हरने वाले साथी। मैं उस ज़िंदगी के मंदिर में हर पल बजने वाली घण्टी की लंबी घनघनाहट और उसकी दूर तक तेल की धारा की फैलती गूँज से परेशान हीं होना चाहता। यह फिर मुझे कृष्ण सा कोई साथी दे दो। मुझे अब गहन निद्रा चाहिए।’
‘अच्छा,’ बूढ़ा दादा हँसते हुए बोला, ‘तो फिर तुम्हारी समस्या का हल तो उसी के पास है, वह विचित्र प्राणी वहाँ मंदिर के पास ही एक छप्पर में रहता है जो गाँव की पंचायत ने कभी बनाया था, लेकिन वह छप्पर ही अब उसका घर है, वह वहाँ साथ की बड़ी बावड़ी में दिन में बीस बार नहाता है, बोलता है कि इससे उसका ज्ञान साफ़ हो जाता है। अब मुझे पक्का यकीन है कि वह तुम्हारा इलाज कर देगा। पर उसकी बातों का बुरा न मानना, वह बहुत सख्त बूढ़ा है, वह बाबा तो है पर बाबा लोगों जैसे कपड़े नहीं डालता, पहली नज़र में तुझे वह बिल्कुल साधारण सा व्यक्ति नज़र आएगा। पर जब तुम उससे बात करोगे तो तुम्हारी तसल्ली हो जाएगी पर एक बात का ख़्याल रखना। उसकी कोई उल्टी सीधी शर्त मत मानना, वह तुम्हें पल में दरिद्र बनाने का हुनर रखता है। वह तुम्हें आसमान जैसी ऊँची चोटी से छलांग मारने को भी कह सकता है। वह तुम्हारे व्यक्तित्व पर कठोर पत्थर से वार करेगा। आगे तुम्हारी मजीऱ्।’
”इन सब चेतावनी भरी बातों से मेरी उस विचित्र बूढ़े बाबा से मिलने की जिज्ञासा और तेज़ हो गई थी और मैं पगडंडी पर बिखरे काँटों को नज़र अंदाज कर अपने कदमों को आदेश कर बैठा कि चलो मुझे वहाँ तक जल्दी ले चलो। मेरे मन का एक टुकड़ा किसी बादलों की बारात से अलग होकर विद्रोह कर रहा था कि मत जाओ उस पागल के पास, पर वहीं इच्छाओं की एक बदली उस बिछुडे़ बादल को पुचकारती हुई अपने साथ लाकर बोली, ‘बच्चा तुम्हारा अस्तित्व सभी के साथ है, तुम अपनी मुठ्ठी में छिपाई चंद बूँदों से अपने होने का प्रदर्शन नहीं कर पाओगे। चलो हम इकट्ठे होकर छोटे बच्चों का सा कोई खेल खेलते हैं।’
”बस मेरे तेज़ कदम उतराई में फिसलने से बचाकर मेरे शरीर के रथ को बाबा के छप्पर तक ले गए। घने वृक्षों का साया मानो मेरेे अस्तित्व को ढक देना चाहता था। पगडंडी के दोनों ओर घनी झाड़ियों, बेलों ने पगडंडी को निगल लिया था। मेरी आँखों और कदमों के फासले के बीच सिर्फ़ झाड़-झंकाड़ था। ऐसा लग रहा था जैसे इस पगडंडी को इंसानों ने कब का ठुकरा दिया था। मेरे कदमों से कई बेले लिपट गई, ‘तुम कहाँ जा रहे भटके पृथिक, वहाँ तो सिर्फ नई अनुभूतियों का जंगल है, तुमने ठीक मार्ग का अनुसरण नहीं किया है। यह मार्ग तो सांसारिक इच्छाओं के धुर विरोधी उस पागल बाबा के बसेरे तक जाता है, मत जाओ वहाँ, वरना तुम फिर इस मार्ग पर वापिस न आ पाओगे।’
”मैंने अपने कदमों को ज़ोर से झटका तो तुच्छ बेलों का मोह का बंधन पल में ही टूट गया। फिर मकड़ी के एक जाले ने मेरा चेहरा जैसा जकड़ लिया, मेरेे मुँह से गाली निकल गई। मन ने जैसे उस झाड़-झकाडों को लाँगते एक पगलाए व्यक्ति पर तंज कसा- ‘वाह रे, पहले संसार की सब व्यर्थ की बुरी आदतों में फँसा रहा, हर सांसारिक वासना से प्रेम निभाया, अब तक हर इच्छा के पीछे दौड़ लगाते रहे।’
”घने पेड़ों के झुरमुट को लाँघते ही मुझे ऐसा लगा जैसे पेड़ों की इस राक्षसी प्रवृति ने आसमान निगल लिया हो। मेरेे कदमों के नीचे की पगडंडी टूटे पत्तों में छिपकर यही संदेश दे रही थी कि वह भी अपने अस्तित्व को भूलकर गहन निद्रा में जा चुकी है क्योंकि यहाँ तो कोई पथिक आता ही नहीं। इस अँधी दुनिया के बाद आगे आसमान ने अपना घूँघट उतार दिया तो मुझे लगा जैसे मन में शहनाई की गूँज पैदा होने लग पड़ी हो। बरगद के फैले पेड़ों ने मेरा स्वागत किया, ‘आ गए पथिक, इस पागल बूढ़े से सलाह लेने, पछताओगे तुम, अब तुम्हे वापिस जाने को नहीं कह सकते, क्योंकि यह पगडंडी सिर्फ एक ओर के सफर के लिए बनी है।’
”टयालों पर घास उग आया था, पीपल के बड़े पेड़ के ठीक सामने मंदिर का गुम्बज दिखाई दिया। सामने मंदिर के छोटे प्रांगण में मुझेे दो वृद्ध आँखों से घूरता वह बूढ़ा बैठा दिखाई दिया। बूढ़े के होंठ हिले, ‘तुम आ गए यात्री मुझे पत्तों की चरमराहट से ही तुम्हारे आने का संदेश मिल गया था। अच्छा बावड़ी का शीतल जल पी कर तुम्हारी कहानी सुनते हैं।’
”मैंने ठंडे जल को पीकर सुकड़े बुड्ढे की ओर तीक्षण नज़रों से देखा और मंदिर के बरामदे में पत्थरों पर टिकाए एक लकड़ी के फट्टे पर बैठ गया जो मात्र बेंच बनाकर रखा गया था। मैं इधर-उधर घूरने लगा। मंदिर में शिव जी की पिण्डी को देखता रहा। चहुँ ओर जंगल ही जंगल था। मंदिर के साथ एक छोटा सा कमरा था। जिस पर टीन के पतरों को डाला गया था और उन पतरों पर बड़े-बड़े पत्थर रखे थे ताकि वे हवा के वेग से उड़ न जाए, ऐसा लग रहा था जैसे यही उसका कमरा और रसोई दोनो हैं। उसके इस डेरे में पहँुचकर मुझे ऐसे लगा जैसे वह एक -एक काँटे को किसी जादुयी शक्ति से मेरे शरीर से निकालकर बाहर रख रहा था। वह जैसे सब काँटे निकालकर बोला, ‘बेटा यह अनुभव के काँटे थे, अब सब काँटे निकल चुके हैं तो फिर अंदर से फिर खाली हो चुके हो, अब अगर तुम चाहो तो नए अनुभवों की तलाश में फिर से ज़िंदगी के बीहड़ में भटक सकते हो, ज़िंदगी की बाँसुरी फिर से तुम्हें मीठी धुन सुनाकर तुम्हारी इन्द्रियों को सम्मोहित करने को तैयार बैठी है, तुम उसके मायाजाल में फिर से फँसने को तैयार रहो, मैंने तुम्हें इन काँटों से आज़ाद कर दिया।’
”बूढ़े ने जैसे इस पुराने मरीज का निरीक्षण-परीक्षण करना शुरू कर दिया। वह एक कोने में जलती लकड़ियों को एक छोटे चिमटे से खुरचने लगा। आग भड़कने लगी और वह हुक्के की चिल्म में अँगारे डालने लगा। बूढ़े ने लगभग आधी से ज्यादा अँधी आँखों से मेरे चेहरे की ओर देखा और बोला, ‘अच्छा तो बताओ भाई, मैं क्या कर सकता हूँ?’
मैंने कहा, ‘बस बाबा समस्या है भी और नहीं भी। मेरी बुद्धि और विचारों के मेरे शरीर में घुसे काँटे मुझे परेशान कर रहे हैं।’ बूढ़ा बोला, ‘वैसे क्या करते हो? और तुम किस काम की वजह से दुनिया में जाने जाते हो भाई?’ मैं इस प्रश्न का उत्तर बड़ी खुशी से देने लगा, ‘मैं वैसे तो लेखक होने के कारण अपना नाम कमा पाया हूँ।’
”बूढ़ा लेखक नाम सुनकर ज़ोर से हँस दिया। यह हँसी वैसी थी जैसे उस बूढ़े के मुँह से दो काले नाग निकल कर मेरे सामने फन उठाकर खड़े हो गए हों। बूढ़े ने अपना मुँह बंद नहीं किया, ‘अच्छा किस्से कहानी लिखते हो लोगों के।’ वह फिर अजीब सी हँसी हँस दिया, ‘वाह री दुनिया, यह भी काम होता है!’
”पहले तो मुझेे लगा जैसे वह बूढ़ा महामूर्ख है जिसे लेखक का मतलब नहीं पता, पर आखि़री वह लेखक नाम सुनकर हँसा क्यों? पर बूढ़े ने अभी बोलना बंद नहीं किया था। ‘वैसे भाई किस्से तो हम भी बना लेते है ताकि सुनने वाला हमारा भक्त बन जाए। अच्छा तो तुम दिन-रात इन्हीं किस्सांे की माला बनाने में लगे रहते होंगे।’ मैंने कहा, ‘लोगों के जीवन को आधार बनाकर और लोगों के लिए ज़िंदगी को बेहतर जीने के लिए कसीदे लिखता हूँ।’ वह हँसा, ‘अच्छा तभी तुम्हें ऐसा मर्ज़ हुआ है। इस तरह के ज़ख्म कुछ अलग ही तरह के लोगों के होते हैं। वैसे क्यों अपनी ज़िंदगी की राह भूलकर औरों के लिए नई पगडंडियाँ बनाने का हुनर बाँट रहे हो? तुम्हारी समस्या यह है कि तुम हर पल दिन रात यहाँ तक की सपनों में भी उन पात्रों को ढूँढ रहे हो जिनके बारे में लिखकर तुम बहुत बड़े लेखक बनने का सपना पाल बैठे हो, यही ख़्याल अब तुम्हारी जिं़दगी में धुँआ बन रहे हैं जो तुम्हारे अंदर के शरीर को जला रहे हैं ऐसे तो तुम्हें मरते दम तक शांति नहीं प्राप्त नहीं होगी। तुम भटक गए हो लेखक बाबू।’ और बूढ़ा जा़ेर से हँसने लगा।
”उसकी हँसी तब रुकी जब वह तंबाकू पीने की वजह से सिकुड़े फेफड़ों की वजह से बुरी तरह खाँसने लगा। दूसरी तरफ मेरे नाम का व्यक्ति बिल्कुल धँुआ सा बन गया। वह ऐसे खुश हो रहा था जैसे उसने एक बहुत बड़े विद्वान को बस एक ही प्रश्न से पछाड़ दिया हो। बस अब उसे इंतज़ार था कि मैं नतमस्तक होकर अपने ज्ञान की सारी पोथियों को बूढ़े की अँगीठी में सवाह होने को फेंक दँ।
”मैं मोम की तरह पिघल गया था और मेरा अस्तित्व इस बूढ़े ने अंगीठी में जलाने वाली मामूली लकड़ी की तरह सवाह कर दिया था। मैं उठ खड़ा हुआ। ‘कहा जाना चाहते हो बाबू? लगता है तुम मेरी बातों से परेशान हो गए, भई बुरा न मानो, हम फकीरों को समझदारी वाली बातें करने नहीं आती, पर फिर भी ज़ोर देकर कहता हूँ तुमने अपनी ज़िंदगी बर्बाद कर ली’ और वह फिर हँस दिया। ‘अच्छा आप चाहते हो कि मैं आपका भक्त बन जाऊँ और जो मैंने ज्ञान या फिर अपने मजे़ या उ६ेश्य को पूर्ण करने के लिए जो एकाग्रता प्रयोग की है उसे पश्चाताप समझूँ, पर नहीं मैं सचमुच ही पागल था जो आपके पास आ गया। मुझे आपसे कोई नई शिक्षा मिल सकती थी तो मैं आ गया, वैसे उस व्यक्ति ने भी मुझे आपसे न मिलने की ही सलाह दी थी और फिर भी मैं यहाँ चला आया।’
”मैं उठ खड़ा हुआ। शाम की गंध पेड़ों की छाँव में फैलने लगी थी। ‘वैसे भई, रुक जाते थोड़ा, पर एक बात है, मेरी बातों को सहन करने वाले कम ही यहाँ, बाकी ईश्वर की मर्ज़ी।’
”मैं अतृप्त सा होकर वापिस अपने रास्ते निकल गया, पर मैं अंशात ज्वर लेकर लौटा था। बूढ़े के बाणों से मेरी मानसिक शांति छेदित हो चुकी थी। आखि़र उसने मुझे अस्तित्वहीन बनाने की जिद्द क्यों की? वह क्या चाहता है? मुझे उससे घृणा हो रही है, उस पर गुस्सा आ रहा है। वह तो मेरे जीवन की सारी तपस्या को ही आधारहीन बना चुका है। दिन रात सनकी बूढ़े ने मेरे मन में अपना ढेर जमा लिया था। वह साए की तरह साथ -साथ चलता, सोते, उठते हर पल गुप्तचर की तरह पीछा करता । मेरे मन में अंशात सागर की लहरें उफनती रहती। मेरा किसी चीज में मन नहीं लगता। मैं केवल बूढ़े की हँसी का कारण जानने के लिए तड़फने लगा था।
”कुछ दिनों के बाद फिर से मैं उस बूढ़े जादूगर के पास बैठा था।‘मैं तुम्हारे आगे नत्मस्तक हो चुका हूँ, अब मुझे यह तो बताओ कि तुम क्यों मुझ पर हँसे थे, तुमने मेरे लेखक होने के कारण पर इतनी कठोर और उपहासपूर्ण टिप्पणी क्यों की थी?’ बूढ़ा बोला, ‘अच्छा तुमने क्या खोजा? ज़रा मुझे यह तो बताओ, तुम इंसानांे के व्यवहार को ही समझते रहे, लिखते रहे जबकि असली रहस्य तो कहीं और है। पात्रों के साथ संवाद और उनके साथ साथ तुम काल्पनिक ज़िंदगी की रचना करते रहे और उसमें अधूरा मज़ा लेते रहे।’ मैं बोला, ‘यह सिर्फ़ मेरा ही काम नहीं है जो कल्पनामयी दुनिया में कार्य करता है, वह भी ऐसे ही जीता है यही उसकी दिनचर्या होती है तभी वह कुछ निमार्ण कर पाता है। क्या तुम टेलीविजन या फिल्में देखते हो? उन्हे बनाने वाले भी मेरी तरह के होते हैं। एक कलाकार चाहे वह पेंटर हो, नर्तक हो, वह ऐसे ही होते हैं, तो फिर क्या उन्हंे भी पागल समझते हो, यह फिर उनका जीवन भी व्यर्थ है।’
‘भाई तृप्ती तो उन्हें भी कभी नहीं होती होगी। वे केवल अपनी कला के प्रदर्शन से प्राप्त होने वाले एक छोटे आनंद में ही अपना जीवन समर्पित कर देते हैं। किसी वक्त वो भी थक जाते होंगे और वनवास की तैयारी करते होंगे। मेरा तो यही मानना है। तुमने भी तो एक इच्छा की गुलामी की मेरे प्यारे! तभी तो तुम्हारे अंदर त्याग के अंकुर फूटने लगे हैं।’
”मैं एक बार फिर बूढ़े के आगे नत्मस्तक हो चुका था, ‘अब आप ही मुझे कोई रास्ता बताओ, बाबा।’
‘अरे मुझे बाबा न कहो भाई, मैं तो एक साधारण बूढ़ा हूँ। बस फौज की नौकरी में कुछ पढ़ लिख भी गया और रिटायर होने के बाद अपने गाँव को छोड़कर यहाँ भाग आया हूँ या फिर तुम यह कह सकते हो कि यहाँ आराम करने आ गया हूँ। मेरी उम्र के गाँव के सब बूढ़े अभी भी अपने खेतों, बच्चों, बहू बेटों और ज़िंदगी के जाल में फँसे है, पर उन्हें उसी सरहद में रहना है क्योंकि उन्होंने कभी सोचा ही नहीं और साथ में जिस मार्ग पर मैं आकर रुका हूँ यहाँ तक पहुँचना आम आदमी की बात नहीं।
‘जिस दिन मैंने गाँव छोड़ा था तो मेरे हमउम्र दोस्तों और घरवालों ने मुझे यही कहा कि मैं पागल हो गया हूँ, पर मैंने इस गाँव को जिस तरीके से देखा था, मैं इसके आसमान के रंगों में बदलाव का इच्छुक था। वैसे भी आदमी अपनी अंदर की किसी शक्ति के वशीभूत ही अपने निर्णय लेता है और लगातार के प्रयास उसे एक दिन लंबी उड़ान तक ले जाते हैं पर मैं खुद को बड़ा खास नहीं समझ सकता। क्योंकि मेरी मजबूरी ने मुझे सहारा दिया। जिस दिन मेरी पत्नी स्वर्ग सिधार गई बस आगे पीछे कोई था नहीं तो फिर यह बे औलाद बूढ़ा लोगों के लिए बाबा बन गया। बस मेरे बेढंगे बोल लोगों के लिए रास्ते के फूल बरसाने लगे और मेरी ख्याती इन साधारण मोह माया और यांत्रिक जीवन की गठड़ियाँ ढोने वाले गाँव वालों में फैल गई। जो हर उस व्यक्ति, सिद्ध या फिर पत्थर के देवता में विश्वास रखते हैं जो इनके लिए थोड़ी सी शांति, इच्छाओं की पूर्ति का दिव्य स्वप्न दिखा दे। ये उस ओर भेड़-बकरियों की भीड़ की तरह भाग चलते है। जहाँ इनकी आस्था की दीए को तेल की धारा बहती दिखाई दे सके। ये तुम्हारी तरह ज्यादा विचार करने वाले लोग नहीं हैं।’
”उस बूढे़ की चिल्म ठंडी पड़ गई तो वह फिर उठा और अँगारों को खंगालकर तंबाकू की गोली डालकर फिर सामने बैठ गया। ‘अच्छा तो मैं क्या कह रहा था? क्या तुम अपनी समस्या का हल ढूँढने के लिए इस बुड्ढे को काम पर लगाओ वरना तंबाकू पीने के अलावा अब मुझे और कोई काम नहीं बचा है। वैसे लगता है तुम्हारे अंदर का बोझा भर गया है और तुम उसे खाली करने का सोच रहे हो।’ मैं बोला, ‘ठीक कहा जी आपने, मैं अपने ही विचारों के चक्रव्यूह में फँसा हूँ और अब मेरे अंदर अशांत विचार-धाराओं के कई नदी नाले दिन रात बहने लग पडे़ है, ये नदी नाले काले बादलों को पुकारते हैं। मेरी समस्या यह है कि अब मुझे जिं़दगी में नीरसता दिखाई देने लग पड़ी है, मेरी किताबों की गिनती और अपने ही ज्ञान का बोझ मेरे सिर पर इतना बढ़ गया है कि मैं उसे उठाए अब जी नहीं सकता। मैं फक्कड़ पन में जीना चाहता हूँ, जैसा आप जी रहे हो।’
”बूढ़ा मेरी की ओर बड़े गौर से देख रहा था, सुन रहा था जैसे इस बेगाने मुसाफिर ने अपना बोझा उसके ही सिर पर रख दिया हो। फिर वह बोला, ‘अच्छा, तुम फक्कड़ पन में जीना चाहते हो पर ऐसा कैसे होगा? यह देख रहे हो धूना, अगर मैं इसमें लकड़ियाँ न डालू तो कुछ ही पल में शांत होकर अपने अस्तित्व को भी भूल जाएगा। इसे सिर्फ़ लकड़ी चाहिए और एक कहीं से उधार ली हुई चिंगारी और अदृश्य वायु जो बहुत ज़रूरी है, तुम्हारी हालत कुछ इसकी तरह है तुम निरंतर अपनी चेतनता के धूने को लकड़ियाँ परोस रहे हो और अपनी साँसों में छिपी वायु से उसे चलाएमान कर रहे हो। मुझे लगता है कि तुम्हें लकड़ियों और चिंगारी से दूर जाना होगा नहीं तो जलते रहोगे।’ मैं बोला, ‘बस आप मुझे अपनी सही सलाह दे दो ताकि मैं किसी नए रास्ते पर निकल सकूँ।’
”वह बूढ़ा सिर खुजलाते बोला, ‘तुम मेरी बताई सलाह पर नहीं चल सकते लेखक बाबू।’ ‘क्यों नहीं चल सकता?’
‘क्योंकि मेरी सलाह पर चलने वाले जिस रास्ते से आए होते हैं, उस रास्ते से वापिस नहीं जाते। तुममें इतनी हिम्मत मुझे दिखाई नहीं देती।’
‘आप बस एक बार बताएँ, और फिर देखें।’
‘तो फिर सुनो, क्या तुम अपनी सारी किताबें जो अब तक लिखी हैं, उन्हें उस खड्ड में या फिर अन्य किसी नदी में बहा कर अपने सिर का बोझा हल्का कर सकते हो। तुम्हारे पास फिर केवल खुला आसमान होगा। अगर हाँ है तो फिर यह काम करो और मेरी तरह फक्कड़ बन जाओ।’
”मेरे सिर के ऊपर से आसमान जैसे दूर भाग गया और पैरों की ज़मीन ने जैसे मुझेे ठोकर मार कर दुत्कार दिया। ‘ये आप क्या कह रहे हो बूढ़े सलाहकार?’ ‘तो फिर तुम्हें पहले ही किसी ने रोका नहीं था कि इस बूढे़ के पास आकर सलाह माँगने वाला फिर वापिस नहीं आता तो फिर यहाँ क्यों ढोंग करने आ गए।’
‘अच्छा मैं अगर आपकी सलाह मान भी लूँ तो फिर लोगों से कहने के लिए यह तो हो जाए कि मैंने एक बहुत अधिक खुश व्यक्ति से यह सलाह मान कर किया है।’
‘भई न तो मैं कोई सलाकार हूँ, न कोई बाबा, आगे तुम्हारी मर्ज़ी, पर एक बात कहे देता हूँ, जब तक तुम्हारी जिं़दगी है, हमेशा अच्छे सलाहकार के लिए भटकते रहोगेे अगर विश्वास नहीं तो कुछ वर्ष प्रयोग करके देख लो, जब फिर ख़्याल आए तो पता कर लेना कि मैं बचा हूँ भी या नहीं। तभी दोबारा आना अगर मैं तब तक ज़िंदा रहा तो फिर तुम्हारे लिए तब कोई नई सलाह ढूँढ कर रखूँगा। तब तक तुम यह मान कर चलते रहना कि बस तुम भटक रहे हो। जब मेरा ख़्याल आए तो अपनी एकाग्रता तुम उस भगवान के रहस्य को समझने में लगा देना तो शायद तुम बहुत कुछ प्राप्त कर पाओगे और तुम्हारे लिए उससे बढ़ा सलाहकार कोई और न होगा।’
”बूढ़ा बोलता जा रहा था और मैं वापिसी का रास्ता पकड़ चुका था, पर कुछ ही दूरी पर जाकर जैसे मुझे लगा कि वह मैं उस रास्ते पर नहीं चल रहा था जिस पगलाए रास्ते पर मैं यहाँ एक सनकी और पागल बूढ़े की तलाश में आया था। मैं वापिसी पर किसी और ही रास्ते पर था। यह रास्ता मुझे ईश्वर से साक्षातकार की ओर ले गया था और अब मैं अपनी सारी लिखी किताबों को तुम पवित्र नदी में बहाने आ गया हूँ।“

— संदीप शर्मा

*डॉ. संदीप शर्मा

शिक्षा: पी. एच. डी., बिजनिस मैनेजमैंट व्यवसायः शिक्षक, डी. ए. वी. पब्लिक स्कूल, हमीरपुर (हि.प्र.) में कार्यरत। प्रकाशन: कहानी संग्रह ‘अपने हिस्से का आसमान’ ‘अस्तित्व की तलाश’ व ‘माटी तुझे पुकारेगी’ प्रकाशित। देश, प्रदेश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख, कविताएँ व कहानियाँ प्रकाशित। निवासः हाउस न. 618, वार्ड न. 1, कृष्णा नगर, हमीरपुर, हिमाचल प्रदेश 177001 फोन 094181-78176, 8219417857