भारत महोत्सव और भेलपुरी!
उस दिन लखनऊ में एलडीए के गोल मार्केट से पत्नी को खरीददारी कराकर वापस आ रहा था। मैंने लाल रंग का एक काफी पुराना लोअर जिसपर लिखावट वाला प्रिंट था, के साथ एक पुरानी सफेद रंग की टीशर्ट के ऊपर पूरी बाह का स्वेटर पहने हुए था। यह स्वेटर भी तेइस साल पुराना है, जिसे कभी मैंने हरदोई में खरीदा था। ठंड रोकने में इसकी कामयाबी देख, यह स्वेटर आज भी मुझे बहुत प्रिय है। कुलमिलाकर इस पहनावे में मैं अपने वाह्य हुलिए से सर्वहारा वर्ग का प्रतिनिधित्व करता हुआ फटीचर गरीब-मजदूर जैसा था। लेकिन मेरे अन्तर्मन में मेरा बुर्जुवापन सांस्कारिक रूप से विद्यमान तो था ही, इसलिए पत्नी जब दुकान में थीं तो मैं कार में ड्राइवर सीट पर बैठा उनकी प्रतीक्षा कर रहा था।
खैर, लौटते समय रास्ते में स्मृति उपवन पड़ा जिसमें लखनऊ महोत्सव चल रहा था। पत्नी ने यह कहते हुए कि इस वर्ष महोत्सव आना नहीं हुआ है, मेले में चलने के लिए कहा। उनकी इच्छा का सम्मान करते हुए मैं कार पार्क करने की जगह देखने लगा। लेकिन बिजली पासी किला और स्मृति उपवन के बीच से गुजरती सड़क की दोनों पटरियों पर कारें खड़ी थी, यहाँ गाड़ी खड़ी करने की कोई जगह न दिखाई पड़ने पर मैंने कार पार्किंग की समस्या की बात कहकर घर चलने के लिए कहा। लेकिन मार्निंगवाक पर आज न जाने का हवाला देकर मेले में घूमकर इसका कोटा पूरा करने की उनकी सलाह मुझे जँच गई। उन्होंने मुझे इन खड़ी कारों के बीच कहीं जगह खोजकर कार खड़ी कर देने का भी सुझाव दिया।
* * *
उनके कहीं भी कार खड़ी करने के इस सुझाव पर मैंने अपने इस अनुभव को खंगाला कि हर चीज के लिए नियम-कानून बना होता है और इसके पालन का दारोमदार साधारण कॉमनमैनों पर ही होता है, इन्हीं बेचारों से नियमों कानूनों का पालन भी कराया जाता है। ताकि पता चल सके कुछ नियम या कानून भी हैं। यही गुड गवर्नेंस का मूल मंत्र भी है। इस अनुभव को उनसे साझा करने की गरज से मैंने एक घटना की उन्हें याद दिलाई कि “पुलिसवाले हमारी कार यहाँ से उठा सकते हैं जैसे एक बार यहाँ से उठाया था, उस दिन अनायास एक हजार रुपए की चपत पड़ी थी, इसलिए कार पार्किंग की जगह ढूँढ़ लेते हैं।” लेकिन इसपर उनका यह भी तर्क आया कि “फिर तो आज यहाँ सैकड़ों कारें खड़ी हैं, अपनी ही कार क्यों उठाएंगे?” अब मैंने अपनी बात उदाहरण देकर पत्नी को समझाना शुरु किया कि “देखो हमारी यह अट्ठारह साल पुरानी बेचारी सी जेन कार है, जो यहाँ खड़ी नए माडल की लक्जरी जेंटलमैन कारों के बीच कॉमनमैन जैसी अनकॉमन सी दिखाई पड़ेगी, और ट्रैफिक पुलिस की निगाह में हमारी यह कार आसानी से आएगी, फिर तो इसे उठने से उन्हें कोई नहीं रोक पाएगा और दूसरे आज मैं जेंटलमैनों जैसी वेशभूषा में भी नहीं हूँ कि कोई मेरी सिफारिश मानेगा! देखो, लग्जरी गाड़ियों को नो पार्किंग जोन से नहीं उठाया जाता! इसे तुमने भी देखा है। क्योंकि कानून का पालन कराने वालों के लिए नरम चारे की जरूरत होती है, इसके लिए हम जैसे और हमारी यह बेचारी सी कार ही मुफीद पड़ेगी, इसलिए आओ पार्किंग ढूँढ़ लेते हैं।” इस बात को वे सही तरीके से समझ जाएं इसके लिए मैंने उन्हें एक और घटना की याद दिलाई, “एक बार देखा नहीं था उस ट्रैफिक सिग्नल पर कैसे एक सिपाही हमारी इस कार के सामने आकर खड़ा हो गया था और गाड़ी किनारे लगाने के लिए कहने लगा! वह तो तुम्हारे हड़काने पर पीछे हटा था। उस दिन तुमने ही कहा था कि यदि हमारी भी गाड़ी बड़ी सी लक्जरी टाइप की होती तो यह पुलिस वाला सामने आने की हिम्मत न करता।” यह सब बताने से मुझे लगा कि मेरी बात उनकी समझ में आ गई है। इधर यह बतियाते-समझाते हम पार्किंग एरिया में भी आ चुके थे। चालीस रूपए शुल्क देकर यहाँ मैंने कार पार्क कर दिया।
* * *
आज रिक्शेवाला या मजदूर जैसी मेरी वेशभूषा पर मेरे अंदर का बुर्जुवापन मुझसे असंतुष्ट था। इसे मनाने के चक्कर में कार से उतरने मैं थोड़ा समय ले रहा था, इसपर पत्नी ने मुझे टोका भी। खैर कार से मैं बाहर आया। महोत्सव के मुख्य प्रवेश द्वार जिसे लखनऊ के रूमी गेट जैसा आकार देने की कोशिश की गई थी, वहाँ तक हम आए। आज मेरा हुलिया मजदूरों जैसा था, एक लोककल्याणकारी और लोकतांत्रिक व्यवस्था में मजदूरो-श्रमिकों का बहुत महत्व है बल्कि इनके नाम पर सत्ता परिवर्तन तक हो जाता है, एक क्षण के लिए मुझे अपने इस हुलिए पर गर्व हुआ और मैं सीना ताने उस गेट से महोत्सव में जाने की सोचने लगा। लेकिन महोत्सव में जाने के लिए टिकट लेने की व्यवस्था थी। बेमन से मैं टिकट खिड़की की ओर मुड़ा। इसके साथ ही मुझे गाँव के मेले की याद आई, जिसमें चाहे घूरेलाल हों या बाँकेलाल! नि:शुल्क मेले का भ्रमण करते हैं। गाँव का वह मेला शहरों में महोत्सव के रूप में अपग्रेड हो जाता है। गाँव और शहर के समाजवाद में अंतर आना लाजिमी तो है ही! मैंने टिकट खिड़की से चालीस दूंनी अस्सी रुपए के दो टिकट लिए। टिकट के पैसे चुकाकर मुझे इस बात से संतोष हुआ कि एक दिहाड़ी गरीब मजदूर भी चालीस रूपए खर्च कर महोत्सव मना सकता है, यहाँ आकर वह भी अपग्रेटानुभूति प्राप्त कर सकता है और उसे इस बात से प्रसन्नता हो सकती है कि इस मेले में कोई उसे देखकर उसकी औकात चालीस रुपए से कम तो नहीं ही आंकेगा!
महोत्सव परिसर में प्रवेश करते ही मैं भेलपुरी का स्टाल खोजने लगा। बचपन में बंबई की चौपाटी पर भेलपुरी खाया था। ऐसे किसी महोत्सव या मेले में आने पर उसकी याद अवश्य ताजा करता हूँ। इसके लिए खासकर मैंने इसी महोत्सव को ही फिक्स किया है। लेकिन पत्नी जी मुझे शॉल, स्वेटर, कंबल और रजाइयों वाले स्टॉल की ओर ले चलीं! वे यहाँ चीजों को उलटती-पुलटती दाम पूँछती और फिर आगे बढ़ जाती। एक स्टाल पर जब ज्यादा समय लगा तो मैंने यह कहकर टोंका भी कि जब लेना-देना कुछ नहीं तो इतना समय क्या लगाना। इसपर उनका तर्क पेश हआ कि तुम क्या जानों! चीजों के बारे में जानकारी तो होनी चाहिए। खैर हम आपस में यह तय करके ही महोत्सव में आए थे कि यहाँ से कुछ खरीदना-वरीदना नहीं है, इसका वे पालन कर रहीं थीं।
* * *
हम दूसरे साइड में आए तो वहाँ के स्टॉलों पर भीड़ कुछ ज्यादा मिली। अचानक एक आवाज मेरे कानों में पड़ी कोई कह रहा था “अरे! बहन नमस्ते, कहाँ जा रही हैं।” मैंने पीछे मुड़कर देखा। यह आवाज एक शॉल-स्वेटर की दूकान से आई थी। उस स्टॉल वाले ने श्रीमती जी को ही संबोधित किया था। उस समय उस दूकान से हम थोड़ा आगे बढ़ आए थे। श्रीमती जी पीछे मुड़कर तुरंत बोली थी, “अरे तुम यहाँ!” आवाज देने वाले ने बताया कि आजकल वह भी इस महोत्सव में अपना स्टाॅल लगाए हुए है। इसके बाद उलाहना भरे स्वर में उसने कहा, “बहन, मैं आपके घर गया था लेकिन आप घर में से निकलीं हीं नहीं, मैंने काफी आवाज भी लगाई।” “अरे नहीं भाई! ऐसा नहीं हो सकता, इन दिनों मै घर पर नहीं थी। इसके बाद मेरी ओर इशारा करते हुए पत्नी ने उससे कहा, “मैं तो इनके साथ नोएडा में थी, अभी वहीं से आई हूँ।” फिर उसने मेरी ओर देखा और मुझसे नमस्ते किया। उसके गोरे चेहरे पर दाढ़ी भी थी। उसके बोलने का लहजा कश्मीरी था। मैंने झट से अनुमान लगाया कि “तो यही रियाज कश्मीरी है!” पत्नी ने अपने व्हाट्सएप पर इसी नाम से इसका नंबर फीड किया है। एक दिन मैंने इसके बारे में पूँछा था। उन्होंने बताया था कि “यह हर साल जाड़े में आता है। इच्छा न होते हुए भी मुझे इससे कुछ न कुछ खरीदना ही पड़ता है क्योंकि बहन-बहन करके यह पीछे पड़ जाता है। कई बार कश्मीर से चलने के पहले ही व्हाट्सऐप पर यह वैरायटी की फोटो भेज देता है कि बहन इसे आपको लेना है।” मैं उसी रियाज कश्मीरी को आज यहाँ महोत्सव में स्टाल सजाए देख रहा था। उसकी कुछ खरीद लेने की बात पर पत्नी ने घर आने पर वहीं खरीदने की बात कही।। पत्नी की बातों से वह संतुष्ट दिखाई पड़ा।
* * *
यहां से हम स्टालों के सामने की भीड़ से बचते हुए आगे बढ़े ही थे कि मैंने किसी को कहते सुना, यार तुम इतनी देर से क्या कर रही हो? लेना है क्या? उधर से आवाज आई, नहीं। तो फिर चलो। मैंने उसे मुड़कर देखा। अपनी बेटी को गोद में उठाए एक पति की यह आवाज थी। इस बात पर हम पति-पत्नी एक दूसरे की ओर मुस्कराकर देखे, जैसे कि हम इस बात पर सहमति जता रहे हों कि, इस मामले में सब स्त्रियाँ एक जैसी होती है। यहां से हम दूसरे ब्लाक में पहुँचे।
मैंने एक स्टाॅल की ओर संकेत किया। यहाँ पुरुषों के लिए जैकेट, सदरी वगैरह बिक रहा था। हम दोनों स्टाॅल पर गए। वे जैकेट देखने लगीं। दुकानदार ने उन्हें एक से एक जैकेट दिखाया। मैं उनके पीछे खड़ा था, लेकिन उसने मुझे तवज्जो नहीं दिया, शायद मुझे उनका ड्राइवर समझ लिया होगा। उनके वहाँ से हटने पर मैंने उन जैकेटों को देखना शुरू किया। लेकिन इसपर भी उस स्टॉल वाले ने मेरी ओर ध्यान नहीं दिया। यह मुझे बड़ा अजीब लगा। क्योंकि सेल्समैन येनकेनप्रकारेण ग्राहक को सामान लेने के लिए प्रेरित करते हैं, लेकिन यहाँ ऐसा कुछ भी नहीं था। आज मेरे पहनावे और बढ़ी दाढ़ी से मेरा हुलिया वाकई में एक दिहाड़ी श्रमिक से भी गया बीता दिखाई पड़ रहा था। इसीलिए कपड़ों को पहनकर ट्राई करते देखकर उसने जैसे मुँह बिचकाया था जैसे वह कहना चाहता था कि बेटा ये जैकेट लेना तुम्हारे वश की बात नहीं, इसे धर दो।” मेरे अंदर छिपा बैठा जेन्टलमैन इससे अपमानित हुआ था। दरअसल यह जेन्टलमैंनी ही एक तरह का बुर्जुआवाद है। यह शक्ति के विभाजन और उसके स्तर को शिद्दत से महसूस करता है।
* * *
इस मेले में मेरा नेतृत्व पत्नी के हाथ में था। यहाँ उन्हें फॉलो करना भी स्वाभाविक ही था। अचानक मुझे एक भेलपुरी का स्टाल दिखाई पड़ गया। इसे देख मैंने चहककर बोला, “वो देखो! चलो पहले वहाँ भेलपुरी खाते हैं।” उन्होंने मुझे घूरा और कहा, “तुम्हें तो भेलपुरी की ही पड़ी है, लौटते समय खाना।” मैंने मन मसोसा और उन्हें फालो करता रहा। हम एक ऐसे स्टॉल पर गए जहाँ सब धान बाइस पसेरी था और यहाँ हर आइटम सौ रूपए में मिल रहा था। लेडीज हो या जेंट्स दोनों के कपड़े, शॉल, सूट कोट, ब्लेजर, जैकेट सभी। यहाँ भी पत्नी को वह माल छाँट-छाँटकर दिखाया। लेकिन जब मैंने देखना शुरू किया तो वह दूकानदाल सूटेड-बूटेड ग्राहक के पास चला गया और उसे पहनाकर कपड़े ट्राई कराया। कुलमिलाकर उसकी नजरों में मेरी औकात सौ रूपए के बराबर भी नहीं थी। दरअसल एक काॅमन-मैन की यही स्थिति होती है वह पूरी व्यवस्था में उपेक्षित होता है। लेकिन उसके नाम पर ही सारी चीजें होती हैं, फिर भी उसके लिए कोई चीज नहीं होती। लेकिन अब मैं अपने इस कामनमैनशिप का मजा लेने लगा था और इस स्टॉल से निकलकर हम लोग आगे बढ़ गए।
* * *
मैंने देखा, एक इनोवा कार इसी भीड़भाड़ के बीच आई थी। मैं जानता था कि महोत्सव में कार को यहाँ तक ले आने की इजाजत नहीं होगी। मैंने देखा इस कार के पीछे एक राजनैतिक दल का स्टीकर चिपका था! यह सत्ता विरोधी दल का स्टीकर नहीं था। इसे देखते हुए मुझे अपने अंदर दोनों व्यक्तित्व की अनुभूति हुई। मेरे अंदर का सर्वहारा इस नियम तोड़ू व्यवस्था को देखकर उदासीन था उसने इसे मात्र एक दर्शक की तरह देखा! लेकिन इस कार का मेले में इस तरह घुसना मेरे बुर्जुआपन या जेंण्टलमैनशिप को मुँह चिढ़ाती हुई सी प्रतीत हुई, एक बार फिर उसे अपमान बोध हुआ था। उसके बुर्जुआपन को लगा कि यह नियम-तोड़क शक्ति उसके पास क्यों नहीं है! इसीलिए उसने, जो इन दोनों से निरपेक्ष अर्थात जो न तो कॉमन मैन था और न ही जेंटलमैन था, ने निष्कर्ष निकाला कि यह जेंटलमैनशिप समाज देश और व्यवस्था के हित में नहीं होता, और यही बुर्जुआपन है जिसे हमेशा शक्ति की ही चाह होती है और वह भी इसी नियम-तोड़क शक्ति की! बस ये इतना करते हैं कि अपनी जेंन्टलमैनशिप प्रमाणित करने के लिए आपस में ही एक दूसरे से सुरीली आवाज में एक्सक्यूज भी कह उठते हैं! दूसरी ओर कॉमनमैनशिप इस सिस्टम में उदासीन इसलिए है कि वह सदैव अपने कर्तव्य बंधन में ही बंधा रहता है और चालीस रुपए में ही सही, महोत्सव मना लेने में खुश हो लेता है।
* * *
खैर, इस बीच पत्नी अब मेले के अंतिम छोर की ओर बढ़ रहीं थीं। मुझे उन्होंने बताया कि यह लखनऊ महोत्सव नहीं, भारत महोत्सव है। मेरे “नहीं तो!” कहने पर उन्होंने इशारा करते हुए मुझसे कहा, उसे पढ़ो। मैंने पढ़ा। वहाँ भारत महोत्सव ही लिखा था। ठीक इसी समय मुझे फिर भेलपुरी वाला स्टाल दिखाई पड़ा। मैंने लगभग जिद में कहा, अब चलो भेलपुरी खाया जाए। मेरी जिद पूरी हुई। हम स्टाल के पास गए। यहां चार महिलाएं खड़ी थीं। भेलपुरीवाला भेलपुरी तैयार कर रहा था। मैने चारों महिलाओं को निहारते हुए सोचा, मेरा नंबर देर से आएगा। तब तक भेलपुरी वाले ने एक दोना भेलपुरी तैयार कर एक महिला की ओर बढ़ा दिया। उस महिला ने दोने को पकड़ते हुए एक खाली प्लेट और चार चम्मच मांगे। मतलब इसी एक प्लेट में ये चारों हिस्सा बनाएंगी। इसी में से एक दूसरी महिला ने जब एक और खाली अतिरिक्त प्लेट की माँग की तो मैंने भेलपुरीवाले को कहते सुना कि मैडम एक-एक दोने का हिसाब मालिक लेता है, यह हमें गिनकर मिलता है, एक अतिरिक्त प्लेट मैंने आपको पहले ही दे दिया है, उसी का हिसाब मुझे अपने घर से करना होगा। यह देख और सुनकर मैंने सोचा कि प्राइवेट कंपनियाँ ऐसे ही अपने कामगार से उसके काम का हिसाब लेती होंगी।
पचास रूपए में मैने भी एक प्लेट भेलपुरी लिया। पत्नी जी ने इसे कूड़ा-करकट कहकर खाने से मना कर दिया था। फिर भी मैंने लकड़ी के दो चम्मच लिए। एक चम्मच उन्हें दिया और इसी प्लेट से भेलपुरी खाने का आफर दिया, लेकिन एक-दो चम्मच लेने के बाद अपना चम्मच फेंककर मुझे थोड़ी दूर लगे स्टालों की ओर चलने का संकेत किया। मैं लकड़ी के चम्मच से प्लेट में से भेलपुरी उठाते मुँह में डालते उनके पीछे-पीछे चल पड़ा। वे स्टॉल-स्टॉल घूमती रहीं और मैं उनके पीछे भेलपुरी खाता टहलता रहा। उधर जैसे ही दूकानों की कतार खतम हुई, इधर मेरे प्लेट की भेलपुरी भी समाप्त हो चुकी थी। मैंने प्लेट फेंकते हुए उनसे वापस चलने की गुजारिश की और हम वापस मुड़ गए थे। कुल जमा एक सौ अस्सी रूपए में मैंने महोत्सव मना लिया था, ऐसा इसलिए कर पाया कि मैं वह कॉमन मैन नहीं था, जिसके लिए महोत्सव के प्रवेशद्वार से ठीक बाहर पटरी पर टीन के कनस्टर में आग जलाए इसपर छोटी सी कढ़ाई में छोटे-छोटे समोसे सिंक रहे थे, इन्हें खरीदने वाले महोत्सव में नहीं घूमते होंगे!
****