परिक्रमा
हाशिये पर जा बैठी गोरैया
स्व भाव को भूल कर
नादानियां कितनी प्यारी थी
घिरे रहते थे स्वजनों के बीच सदा
ना कल की चिंता ना आज की
फुदकते रहते थे यहां वहां
रिश्तेदारों के घर आना-जाना
मिलने-जुलने का था बहाना
अनगिनत यादें समेटे चल पड़ा
एक हाथ थाम कर बनाने को
अपना इक सुन्दर सुखद आशियाना ।
कभी गुफ्तगू कभी मौन कभी आलिंगन
यही सब था जीने का बहाना ।
ईश्वर प्रदत्त तोहफे में मिला
कोमल कली समान इक जान
वक्त बदला बदले हालात अब
नर-मादा दोनों के बसते थे उसमें प्राण
बड़ा हुआ वह उड़ गया
घोंसले से वह दूर गया ।
बड़े दिनों बाद दोनों के, इक दूजे
से नज़रें आपस में मिली
स्निग्ध मुस्कान था आज भी कायम
यह ईश्वरीय वरदान से कम नहीं।
एक आंधी ऐसी चली
जोड़ी टूटी पंख थके
फिर भी जीना है यहीं ।
सोच कर पंछी रो पड़ा
अपनी नम आंखें पोंछ कर
ईश्वर को नमन करने लगा ।
हे प्रभु अब तक साथ निभाये हो
साथ कभी मत छोड़ना
मिलना-बिछड़ना और सुख-दुख
महसूस करना, जीवन की बस परिक्रमा।
— आरती रॉय