बसंत
पतझड़ के पलने में पलकर, बसंत का मौसम आया है,
पतझड़ के कष्टों में भी खुश, रहना इसने सिखाया है.
जब तक पात पुराने न झड़ते, नव किसलय कैसे आ पाते!
उन्हीं पुरातन पत्तों पर चल, नव बसंत खिल पाया है.
रति ने फूलों के गहने पहने, मादकता की आभा है,
कुसुम-धनुष ले कामदेव ने, तीन लोक को नापा है.
नवल प्रेम का परचम लेकर, फिर बसंत लहराया है,
प्रेम-संदेशा धरा-गगन को, देकर यह हर्षाया है.
मंद पवन के झोंके लेकर, ऋतु बसंत की आई है,
पीले फूल, पीली सरसों से, सज्जित धरा हर्षाई है.
नव किसलय से हर्षित हो तरु, मस्ती से हैं झूम रहे,
अमराई में कूके कोयल, खग गण नभ को चूम रहे.
केसर की क्यारी ने महककर, अपना रंग दिखाया है,
इसी रंग से खुद को रंगने, खुद बसंत चल आया है.
भंवरों की गुंजन ने खुश हो, गीत बसंती गाया है,
रंगबिरंगी तितलियों ने भी, नृत्य से साथ निभाया है.