सखी री! होली है आई।
साथ खुशियां है लाई।।
खेलेंगे सब मिलजुल होली।
निकलेंगे टोली की टोली।।
होगी बरसात विभिन्न रंगों की।
पुत जायेगी चेहरे सभी की।।
घर-घर विभिन्न पकवान बनेंगे।
मुहल्ले खुशबू से भर उठेंगे।।
दु:ख तो है सखी सुन तो सही।
सजन पास मेरे यहां है नहीं।।
ना कोई संदेश ही भिजवाया।
ना ही लिखी चन्द शब्दों की पाती।।
ना ही भेजी उन्होंने नयी सारी।
ना ही जरीदार लहंगा वह चुनरी।।
दिन भर टकटकी लगाए रहती हूं।
आस में हरदम द्वार पर बैठी रहती हूं।।
ना मोरे देवर ,ना नन्द है कोई।
मैं रहती हरदम से खोई-खोई।।
किसके संग खेलूंगी मैं होली।
ससुरे में नहीं है कोई हमजोली।।
जो मैं होती मां-बाप के घर।
खेलती रंग पिचकारी भर-भर।।
सब सखियां मेरी खेलेंगी होली।
मैं नीर भरी आंखों से देखूंगी होली।।
पिया जो समझते ये दु:ख मेरा।
कभी न बनाते परदेश में डेरा।।
— मंजू लता