चहकें-महकें फिर दिग्-दिगन्त
वो पीले गुलाब-सा खिलता दिल,
कुम्हला न जाए प्रिय आ जाओ,
है सांझ ढली दिन-जीवन की,
फिर आके सहारा बन जाओ.
है सूनी डगर, है सन्नाटा,
मन भी सूनेपन से आहत है,
कैसे चाय पियूं, कैसे गीत लिखूं,
जब खोई हुई मेरी राहत है!
तुम राहत हो, तुम चाहत हो,
तुम्हीं हो जीवन का आधार,
जब पास नहीं हो तुम होते,
ये खिले फूल भी लगते ख़ार.
सहरा में हो तुम ऋतु बसंत,
खिलने दो प्रेमिल सुमन अनंत,
झरने फिर रस के बह जाएं,
चहकें-महकें फिर दिग्-दिगन्त.