कविता

चहकें-महकें फिर दिग्-दिगन्‍त

वो पीले गुलाब-सा खिलता दिल,
कुम्हला न जाए प्रिय आ जाओ,
है सांझ ढली दिन-जीवन की,
फिर आके सहारा बन जाओ.
है सूनी डगर, है सन्नाटा,
मन भी सूनेपन से आहत है,
कैसे चाय पियूं, कैसे गीत लिखूं,
जब खोई हुई मेरी राहत है!
तुम राहत हो, तुम चाहत हो,
तुम्हीं हो जीवन का आधार,
जब पास नहीं हो तुम होते,
ये खिले फूल भी लगते ख़ार.
सहरा में हो तुम ऋतु बसंत,
खिलने दो प्रेमिल सुमन अनंत,
झरने फिर रस के बह जाएं,
चहकें-महकें फिर दिग्-दिगन्‍त.

*लीला तिवानी

लेखक/रचनाकार: लीला तिवानी। शिक्षा हिंदी में एम.ए., एम.एड.। कई वर्षों से हिंदी अध्यापन के पश्चात रिटायर्ड। दिल्ली राज्य स्तर पर तथा राष्ट्रीय स्तर पर दो शोधपत्र पुरस्कृत। हिंदी-सिंधी भाषा में पुस्तकें प्रकाशित। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। लीला तिवानी 57, बैंक अपार्टमेंट्स, प्लॉट नं. 22, सैक्टर- 4 द्वारका, नई दिल्ली पिन कोड- 110078 मोबाइल- +91 98681 25244