वर्णाश्रम एवं चातुर्वर्ण्य
वैदिक परम्परा में वर्णाश्रम धर्म एवं चार वर्णों को आधार माना जाता है। परन्तु वर्तमान में इसका जो रूप हमें दिखायी देता है, वह शास्त्रों की परिभाषा के विपरीत है। वर्णाश्रम व्यवस्था एवं चातुर्वर्ण्य व्यवस्था सदैव ही समाज में रही है और रहेगी। अगर हम कहें कि वैश्विक किरणें ( cosmic rays) प्रत्येक वस्तु या वाणी पर अपना प्रभाव डालती हैं, तो यह मात्र हमारी कल्पना नहीं अपितु अटल सत्य है। वर्णाश्रम व्यवस्था चातुर्वर्ण्य व्यवस्था सम्पूर्ण मानव जाति की वास्तविक अवस्था है, जिसका अचेषण एवं धारणा वैदिक परम्परा के ऋषि-मुनियों ने की थी। आज हिन्दु समाज में जिस जाति व्यवस्था, ऊँच नीच का भेदभाव या छूआछूत की बात होती है वह वैदिक वर्णाश्रम व्यवस्था एवं चातुर्वर्ण्य व्यवस्था में कहीं नहीं है। वर्तमान व्यवस्थायें स्वार्थी एवं पाखंडी लोगों एवं तथाकथित धर्म एवं सत्ता के गठजोड़ की ही देन हैं।
फिर वर्णाश्रम एवं चातुर्वर्ण्य व्यवस्था क्या है? इसका उत्तर जानने के लिये हमें शास्त्रों को खंगालना होगा। हमारे शास्त्र स्पष्ट रूप से कहते हैं कि वर्णाश्रम व्यवस्था से मानव को धर्म की उन्नति होगी। शास्त्र कहते हैं ‘पिंडे पिंडे मतिभिन्ना’ यानि हर व्यक्ति का धर्म अलग होता है। अगर ऐसा हुआ तो संसार में अनगिनत धर्म खड़े हो जायेंगे। परन्तु यहाँ धर्म का मतलब नहीं अपितु व्यक्तिगत धारणा की अवस्था है। पिता, माता, पुत्र, भाई, बहन सबका धर्म अलग-अलग हो सकता है। इसीलिये शास्त्रों ने धर्म की व्याख्या की है “धारणात् धर्मा इत्याहू: धर्मो धारयते प्रजा:”। ब्रह्माण्ड में जो अनन्त शक्तियाँ सदा बहती रहती हैं, उनको सुयोग्य धारणा एवं उनसे जनकल्याण के उपाय करना ही धर्म है।
वर्णाश्रम धर्म का व्यापक अर्थ स्वयं इसी में छुपा है। वर्ण यानि दिव्य रंग जो प्रत्येक व्यक्ति के शरीर के चारों ओर रहने वाले प्रकाशवलय में रहता है। यह प्रकाशवलय, व्यक्ति गुण, स्वभाव के अनुसार प्रभावित होकर उसका तेजोवलय ( AURA) बनकर दिखाई देता है। दिव्य योगी एवं सन्त इस तेजोवलय को देखने में सक्षम होते हैं, हाँ आज विज्ञान भी इसे स्वीकार करता है एवं विशेष यन्त्रों से देखने में सक्षम है। इस तेजोवलय को व्यक्ति के गुण स्वभाव एवं प्रकृति के आधार पर वैदिक धारणा में विभिन्न वर्णों में बाँटा गया, जिसे वर्णाश्रम कहा गया। उदाहरणार्थ – अत्यन्त शुद्ध आचार विचार वाले व्यक्ति के तेजोवलय का वर्ण शुक्ल रहता है। शास्त्रों में ऐसे व्यक्ति को ब्राह्मण कहा गया। इसमें जाति, मजहब का कोई आधार नहीं है। चातुर्वर्ण्य व्यवस्था का उद्गम इसी प्रकार के वर्णाश्रम धर्म से हुआ। इस प्रकार चातुर्वर्ण्य एवं वर्णाश्रम व्यवस्था, गुण, कर्म, स्वभाव एवं संस्कारों पर निर्भर है, न कि जन्मजात व्यक्ति व्यवस्था पर। यह एक दिव्य प्राकृतिक अवस्था है। वैदिक परम्परा ने यह दिव्य अवस्था का अध्ययन कर समाज के कल्याण एवं सुचारू संचालन के लिये कुछ नियम बनाये जिन्हें वर्णाश्रम धर्म एवं चातुर्वर्ण्य व्यवस्था कहा गया। श्रीगीता में चातुर्वर्ण्य के बारे में स्पष्ट कहा गया है।
चातुर्वर्ण्य मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
वस्य कर्तारमपि मां विद्धयकर्तारमक्ष्ययम् ॥
जन्मतः कोई ब्राह्मण नहीं है। जन्मत: सारे शूद्र हैं। उत्तम संस्कारों के कारण कोई भी ब्राह्मण बन सकता है। शास्त्रानुसार –
जन्मता जायते शूद्रः संस्कारात् द्विज उच्यते।”
फिर ब्राह्मण कौन है? जो ब्रह्म जानता है वही ब्राह्यण है
“ब्रह्म जानाति ब्राह्मणः।
चातुर्वर्ण्य में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शुद्र चार वर्णों का निर्धारण मनुष्य के चतुर्विध पुरूषार्थ पर निर्धारित कर दिया गया।
ब्राह्मण – वैदिक परम्परा का मुख्य ध्येय आदर्श ब्राह्मण बनना है। इसके अनुसार कोई भी सुयोग्य आचार, विचार का पालन कर ब्राह्मण बन सकता है। जिसका आचार, विचार आध्यात्मिक भाव का यानि ब्रह्मा को जानने का है, वही ब्राह्मण बन सकता है। ब्राह्मण बने व्यक्ति का तेजोवलय शुक्ल वर्ण का होता है। अर्थात शुक्ल दिव्य वलयवर्ण का व्यक्ति ब्राह्मण है। ऐसा व्यक्ति आध्यात्म साधना एवं चिन्तन में लिप्त रहता है तथा कामिनी, कंचन एवं कीर्ति से बचकर रहता है। उपनिषद के अनुसार शुक्ल वर्ण दिव्यवलय वाला व्यक्ति किसी भी जाति, धर्म अथवा त्वचा के रंग का हो, ब्राह्मण ही कहलायेगा। जैसा की ऊपर भी लिखा गया है कि जन्म से सब शूद्र हैं, अतः कोई भी सुयोग्य साधना कर ब्राह्मण बन सकता है ब्राह्मण समाज के आदर्श का प्रतीक है न कि जाति व्यवस्था का।
क्षत्रिय – जो अपने क्षेत्र की रक्षा करता है वह क्षत्रिय है। प्रश्न उठता है कि कौन सा क्षेत्र? श्री गीता में कहा गया है-
इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्र मित्ययिधीयते ।
एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इतितद्विदः ॥
आशय यह है कि अपना शरीर ही वह क्षेत्र है तथा जो शरीर की रक्षा कर वह क्षत्रिय है। कहा गया है कि सर्वसाधना का पल उपकरण है जिसकी आत्मसाधना के कारण रक्षा करना आवश्यक है। शरीर की रक्षा शरीर के लिये नही वरण आत्मसाधन के लिये जरूरी है। आत्मसाधना का फल आत्मज्ञान या ब्रह्मज्ञान होते हैं। परन्तु सभी एकदम से ब्रह्मज्ञानी नहीं बन सकते। इस उच्च अवस्था तक पहुँचने के लिये आत्मसाधना करनी पड़ती है। आत्मसाधना के लिये शरीर की रक्षा करना आवश्यक है। अतः जो साधक नियमबद्ध रहकर शरीर की रक्षा करता है वह क्षत्रिय कहलाता है। इस प्रकार अपना स्वास्थ्य एवं कृतिक्षेत्र की रक्षा करने वाले जन जहाँ भी होंगे वे उस समाज के क्षत्रिय माने जायेंगे। क्षत्रिय के सम्बन्ध में पुराणों में परशून्य कथा का उल्लेख है कि उन्होंनें पृथ्वी को इक्कीस बार निःक्षत्रिय किया था यहाँ पृथ्वी से तात्पर्य वह स्थान जिसकी क्षत्रिय रक्षा करता है अर्थात सम्पूर्ण शरीर से है। फिर वह कौन से क्षत्रिय हैं जिन्हें परशुराम ने मार डाला। जब हम अपने कृतिरक्षण की अवस्था से आगे बढ़ते हैं तब हम क्षत्रिय से ब्राह्मणत्व की ओर बढ़ते हैं। कृतिशून्य साधक ही ब्राह्मण है। हमारे शास्त्रों में बताया गया है कि हमारा अस्तित्व इक्कीस सूक्ष्म-सूक्ष्मतर अवस्थाओं में रहता है। हर एक अवस्था को लेकर साधक की कृतियाँ उसी आधार से रहती हैं। हमारी पंचकर्मेन्द्रियां, पंचज्ञानेन्द्रियां, पांच तन्यात्राएं एवं पचं महायत्रों को लेकर कुल बीस तत्वास्थाएं हैं। इन बीस तत्वास्थाओं को संचालित करने वाला इक्कीसवाँ हमारा मन है। इन इक्कीस अवस्था में स्थित आग्रही मनरूप या कृतिरूप क्षत्रियों का संहार करना ही ब्राह्मण बनने की इच्छा करने वाले परशुराम के लिये आवश्यक था। इस प्रकार परशुराम ने ब्राह्मण बनने के लिये अपने शरीररूपी पृथ्वी से सभी इक्कीस कृतियों पर विजय पायी।
वैश्य – ‘विश’ यानि प्रजा तथा वैश्य यानि प्रजा का पोषण करने वाला। प्रजा यानि कृतिरूप अवस्था। आध्यात्म साधना जिन कृतियों का पोषण करना स्वीकार करते हैं उन्हें शास्त्र वैश्य कहते हैं। कुछ साधक सारे जीवन तक एक ही कृति को धारण कर कर्मठता से मग्न रहते हैं, और अपनी कृति का पोषण करते हैं, शास्त्रकार उन्हें वैश्य कहते हैं। अपने कर्म विशेष में मशगूल रहना, कर्मठता के साथ आगे बढ़ना, अपनी कृति के पोषण में लगे रहना वाला व्यक्ति वैश्य है। वैश्य कृति के व्यक्ति का स्वभाव संचय के साथ-साथ मुक्त मन से दया, धर्म देश के प्रति निष्ठावान् एवं दानी होता है। धर्म की परिभाषा है “यतोम्यूदय निःश्रेयस सिद्धिः स धर्मः” इस परिभाषा के धारण करने वाला व्यक्ति/साधक ही वैश्य है।
शूद्र – जिस साधक को थोड़ी भी साधना करने के बाद उसका आविर्भाव या अहंकार अधिक हो जाता है, यह कुछ करने के पश्चात् चित्त का उद्रेक अधिक हो जाता है, ऐसे व्यक्तियों को शास्त्रों में शू-उद्रः यानि शूद्रः कहा जाता है। शूद्र जाति नहीं वरण वृत्तिविस्फोट है। ऐसे शूद्र वृत्ति वाले मनुष्य प्रत्येक समाज में बहुलता में पाये जाते हैं। इसलिये ऐसे व्यक्तियों को वृत्तिउद्रेक शान्त करने के लिये, विनम्र बनने के लिये सन्त, महात्मा, भगवान, ब्राह्मण या अन्यों की सेवा करने के लिये कहा जाता है ताकि उनका भावनाउद्रेक का अहंकार कम हो सके। जिन साधकों में साधना के कारण अहंकार आता है वह शूद्रकृत्ति के साधक साधना ही न करें, यह अच्छा है। इसलिये शुद्रों के लिए तप या साधना करना मना किया है। शूद्र केवल संतजनों के सेवा फिर वही उसका धर्म है।
उपरोक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि वर्ण यानि हर एक व्यक्ति के चारों ओर एक तेजोवलय होता है। प्रत्येक वृत्ति का अलग वयविलय होता है जिस व्यक्ति का वर्ण वलय शुक्ल होगा वह ब्राह्मण, जिसका ताम्रवर्यी वह क्षत्रिय, पीतवर्ण वाला वैश्य तथा शूद्रों का वर्ण वलय कृष्ण, श्याम या काला होता है। इस वर्णवलय में किसी भी जाति, समाज या धर्म का वर्गान्तर नहीं होता है।
— डॉ अ कीर्ति वर्द्धन