गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

आसमान-ए-इश्क़ से उतरी ग़ज़ल।
आँसुओं में जब धुली, निखरी ग़ज़ल।
क्यूँ मुझे महबूब सी लगती रही,
दर्द की दहलीज़ से गुज़री ग़ज़ल।
मज़हबों की गिर गई दीवार जब,
दोस्तों में प्यार से पसरी ग़ज़ल।
जब फ़क़ीरों ने इसे आवाज़ दी,
हर दर-ओ-दीवार पर बिखरी ग़ज़ल।
है अमन के दुश्मनों की क्या कमी,
नमुरादों को बहुत अखरी ग़ज़ल।
खुद-ब-खुद मिसरे परोसे जा रही,
हो गई है आज बेसबरी ग़ज़ल।
सोच के ही दायरे जब तंग हों,
तब कहाँ से आएगी गहरी ग़ज़ल।
— बृज राज किशोर ‘राहगीर’

बृज राज किशोर "राहगीर"

वरिष्ठ कवि, पचास वर्षों का लेखन, दो काव्य संग्रह प्रकाशित विभिन्न पत्र पत्रिकाओं एवं साझा संकलनों में रचनायें प्रकाशित कवि सम्मेलनों में काव्य पाठ सेवानिवृत्त एलआईसी अधिकारी पता: FT-10, ईशा अपार्टमेंट, रूड़की रोड, मेरठ-250001 (उ.प्र.)