ग़ज़ल
आसमान-ए-इश्क़ से उतरी ग़ज़ल।
आँसुओं में जब धुली, निखरी ग़ज़ल।
क्यूँ मुझे महबूब सी लगती रही,
दर्द की दहलीज़ से गुज़री ग़ज़ल।
मज़हबों की गिर गई दीवार जब,
दोस्तों में प्यार से पसरी ग़ज़ल।
जब फ़क़ीरों ने इसे आवाज़ दी,
हर दर-ओ-दीवार पर बिखरी ग़ज़ल।
है अमन के दुश्मनों की क्या कमी,
नमुरादों को बहुत अखरी ग़ज़ल।
खुद-ब-खुद मिसरे परोसे जा रही,
हो गई है आज बेसबरी ग़ज़ल।
सोच के ही दायरे जब तंग हों,
तब कहाँ से आएगी गहरी ग़ज़ल।
— बृज राज किशोर ‘राहगीर’