दोहे
निश्चल शव सम ना बनो, डालो खुद में जान
पर खोलो उम्मीद के, ऊंची भरो उडा़न।।
जीत गए हारे हुए, सीखो उनको देख
कर्मों से बढ़कर नहीं, है किस्मत की रेख।।
कब तक बनकर के लता, ढूंढोगें अवलंब
खुद की जडे़ जमाइये, करिये नहीं विलंब।।
कठिन परीक्षा से भरा, जीवन इक संघर्ष
निखरो तुम बन स्वर्ण से, जी लो इसे सहर्ष।।
इस दुनियां की भीड़ में, आएगी जो पीर
साथ कृष्ण देगा सदा, रखना तुम बस धीर।।
कवयित्री- नीतू शर्मा मधुजा©