उलझन
सोच रही हूंँ बैठे बैठे, आज किधर मैं जाऊंँ।
है थोड़ी सी उलझन साथी, कैसे मैं सुलझाऊँ।।
रहते मानव इस दुनिया में,पर लगते बेगाने।
व्यस्त जिंदगी में डूबे हैं, नहीं यहांँ पहचाने।।
कदम कदम पर वादा करते, हम राह बनायेंगे।
उड़ें गगन में पंख पसारे, हिम्मत बन जायेंगे।।
बड़े बड़े सब बातें करते, यहांँ नहीं है अपना।
रात गई अरु बात गई जी, सभी दिखाते सपना।।
कभी अकेला मन है रोता, कभी ह्रदय घबराता।
घटित हुई घटनाएंँ कितने, समझ नहीं कुछ आता।।
करूंँ अलग कुछ इस दुनिया में, अपना नाम कमाऊँ।
जितनी भी उलझन है साथी, खुद से हल कर जाऊंँ।।
— प्रिया देवांगन ‘प्रियू’