कविता

निर्धनता

जीवन कठिन हुआ पाषाणी
    तड़प रही देखो जनता।
    सिर पर छत अम्बर का उनके
    भाग्य से न उनका बनता।
      तड़पे भूख से बच्चे उनके
      पेट पीठ से सटे हुए।
      तन पर हैं जो मैले कपड़े
      वो भी देखो फटे हुए।
      उनके घर में शायद ही
      दीवाली भी हो मनता।
      बिना दवा के लोग तड़पते
      सड़कों पर उनका डेरा।
      भाग्य साथ ना देता उनका
      कष्टों ने उनकों घेरा।
      ईश्वर भी उनको कब चाहें
      कोप बाण उनपर तनता।
      ऐसी में कुत्ते सोते हैं
      फुटपाथों पर है मानव।
      मानव ही मानव को भूला
      बना हुआ देखो दानव।
      मरें भूख से जीव तड़पते
      एक शाप है निर्धनता।
— डॉ सरला सिंह स्निग्धा

डॉ. सरला सिंह स्निग्धा

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