कविता

कल्पनाओं में तुम रहती हो

तुम ही तो हो जो मन में रहती हो
इक धारा सी बन कर बहती हो
मिल जाना चाहती हो समुंदर में
बहुत वियोग तुम सहती हो
चलती रहती हो अविरल
न निराश कभी न कोई थकान
पहुंचना है मंजिल तक मुझे
सभी खतरों से अनजान
हार नहीं कभी जीवन में मानी
करती हूं वही जो मन में हो ठानी
अस्तित्त्व को जब कोई देता है चुनौती
करती हूं फिर मैं अपनी मनमानी
पंछी बन उड़ती रहूं नीले अम्बर में
स्वछंद घूमूं गगन में न कोई मुझे रोके
छेड़छाड़ मुझको नहीं है भाती
बहती जाऊं मन्ज़िल की ओर कोई न मुझे टोके
— रवींद्र कुमार शर्मा

*रवींद्र कुमार शर्मा

घुमारवीं जिला बिलासपुर हि प्र