गीत/नवगीत

एक देश : एक विधान

कहाँ कहा कब हमने यह कि, हम पर विपदा भारी है
कहाँ कहा कब हमने यह कि, जीवन की दुश्वारी है

कहाँ कहा कब हमने यह कि, सारी भूमि हमारी है
कहाँ कहा कब हमने यह कि, अब जीवन लाचारी है

युगों-युगों से मात-पिता ने इस धरती को सींचा है
सुंदरतम भारत माता का, चित्र अनूठा खींचा है

समय-समय पर सूर्यवंश ने, इस भू का उद्धार किया
चंद्र वंश ने गीता देकर, जीवन को आधार दिया

जियो और जीने दो, दर्शन महावीर ने बतलाया
हमने गौतम की वाणी को, दूर-दूर तक फैलाया

जगत ही परिवार हमारा, यही गीत हमने गाया
जो भी आया दूर देश से, हमने उसको अपनाया

हुए एक हम जब सारे तो, छोड़ फ़िरंगी भी भागे
लौह पुरुष ने भाग-दौड़कर, जब जोड़े सारे धागे

एक विधान-प्रधान हमारा, एक निशान ही प्यारा है
मगर समय के साथ दौड़ना, अब कर्तव्य हमारा है

अगर एक रहना है हमको, दूर भगाना दूरी है,तो
एक राष्ट्र के लिए एक कानून बहुत ज़रूरी है।।

चाह नहीं जागीर किसी की, ना कोई भूमि प्यारी है
पर इस माटी के कण-कण में, बसती जान हमारी है

युग-युग से इतिहास हमारा, स्वर्णिम-गान सुनाता है
दुश्मन के भी साथ हमारा , रहा प्रीत का नाता है

दशकंधर को धूल चटाई, लेकिन ना अभिमान किया
जीती लंका स्वाभिमान से, पल में उसको दान किया

मधुसूदन मथुरा पर अपना, ध्वज भी लहरा सकते थे
कुटिल कंस का सारा वैभव, क्षण में हथिया सकते थे

कलयुग में भी रीत हमारी, हमको जाँ से प्यारी है
इसीलिए न पाक की धरती , सौंपी तुमको सारी है

अगर अनीति हाथ उठाये, तो हम तोड़ भी सकते हैं
अगर दिखाये आँख कोई तो,उसको फोड़ भी सकते हैं

पार समुंदर जाकर घर पर, घात लगाना बंद करो
जयचंदों की औलादों को, ताबूतों में बंद करो

राजवंश के ये पुतले हैं, देश बाँट भी सकते हैं
अगर मिले मौका कोई तो, थूक चाट भी सकते हैं

धरम – जाति जब तक हैं ज़िंदा, आजादी भी अधूरी है
एक राष्ट्र के लिए एक कानून बहुत ज़रूरी है। 2।

क्या पतझड़ के बाद कोंपलें, नयी नहीं खिल जाती हैं?
क्या प्रलय के बाद ये सृष्टि, पुनः नहीं मुसक्याती है?

परिवर्तन संसार का नियम, परिवर्तन करना होगा
मातृभूमि की खातिर हमको, हर दुख से लड़ना होगा

ताकि प्रतिभा के दम पर, हर व्यक्ति को सम्मान मिले
ताकि बंधन जाति का, किसी निर्बल का नाम मान हरे

ताकि कहीं कोई सलमा ना, शब्दों से त्यागी जाए
ताकि कहीं कोई राधा ना, टुकड़ों में बाँटी जाए

ताकि केसर की क्यारी में, बम-गोले ना हास करे
ताकि कोई तिरंगे का ना, सपने में परिहास करे

ताकि बूजड़खानों में ना, गायों की चीत्कार उठे
आस्तीन के साँपों की ना, कभी कोई फुफकार उठे

ताकि भारत की सीमाएँ, सदा शांत – बलशाली हो
ताकि कोख कोई ना उजड़े, बिटियों की किलकारी हो

ताकि फिर कोई अपने तन से , सिर कहीं जुदा ना हो पाये
ताकि भारत का परचम फिर, अखिल विश्व में लहराये

अगर चाहते रात चाँदनी, भोर सदा सिंदूरी है तो
एक राष्ट्र के लिए एक कानून बहुत ज़रूरी है।।3।

— शरद सुनेरी